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आज बसंत पंचमी

Saturday 28 January 2012





धीरेन्द्र अस्थाना 
सुरभित हवा.. खिलते फूल व लहलहाते खेत। मौसम में बदलाव बताता है कि ऋ तुराज बसंत ने दस्तक दे दी है । यह ऐसा पर्व है, जिसके नाम से ही हर तरफ उमंग और उल्लास छा जाता है। यह खास दिन विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के पूजन के लिए होता है। इस दिन लोग पीले वस्त्र पहनते हैं। हल्दी व केसर से बने व्यंजन खाते हैं। इस पर्व को लोग अपने तरीके से मनाते हैं। कहीं मां की प्रतिमा की स्थापना होती हैं, तो कहीं, संगीत संध्या। काफी लोग इस दिन को संकल्प दिवस के रूप में मनाते हैं। इस बार भी शहर में तरह- तरह के आयोजन हो रहे हैं। मूर्तिकारों ने एक से बढ़कर एक मां की प्रतिमाएं गढ़ी हैं। घरों में पकवान बनाए गए हैं।

महाकवि निराला-एक क्रांतिकारी का संघर्ष (जन्मदिवस पर विशेष)

Friday 27 January 2012



अंजू शर्मा 

महाकवि निराला की कवि-चेतना का विकास जिस वातावरण में हुआ था 
उसे स्वछंदतावादी नवजागरण का परिवेश कहा जा सकता है!  जीवन 
और समाज के प्रति उनके दृष्टिकोण में सदैव ही समाज के कल्याण की 
भावना नितित थी! 

स्वछंदतावादी विचारधारा ने समाज के हर क्षेत्र में क्रांति उत्पन्न कर दी 
थी!  साहित्य स्वयं में साध्य नहीं वह तो समाज सापेक्ष ही होता है! 
कबीर जैसे निर्भीक और पौरुष से ओत-प्रोत निराला का व्यक्तित्व किसी 
भी ढोंग और संकोच से कोसों दूर था!  यूँ भी परंपरागत सामाजिक 
रुढियों और वर्जनाओं का विरोध स्वछंदतावाद का मुख्य स्वर रहा है!  
इन मायनो में निराला सच्चे अर्थों में स्वछंदतावादी थे!  

निराला एक ऐसे साहित्यकार थे, जिनके साहित्य की चर्चा उनके जीवन 
संघर्ष और व्यक्तित्व की चर्चा के बिना अधूरी ही रहती है!  जीवन में 
घटित घटनाओं और साहित्य में उसकी अभिव्यक्तियों के बीच निराला 
की एक लम्बी अंतर्यात्रा है!  यह अंतर्यात्रा न केवल उन जैसे संवेदनशील 
रचनाकार के लिए महत्वपूर्ण है अपितु साहित्यिक दृष्टि से भी उसकी 
उपेक्षा करना संभव नहीं है!  क्योंकि घटना से कहीं अधिक महत्वपूर्ण वह 
आत्ममंथन है, वह प्रवाह है, जो उस अंतर्यात्रा के बीच परिचालित होता 
है!  वस्तुतः निराला की रचनाएँ उनके व्यक्तित्व का साक्षात् प्रतिबिम्ब हैं! 
देखा गया है कि निराला के व्यक्तित्व की चर्चा उनकी कृतियों के 
सामानांतर हुई है! निराला अपने जीविकोपार्जन तक के लिए सदा ही 
संघर्षरत रहे, फिर भी वे उन अत्यंत साधारण लोगों में गिने जाते थे 
जिन्होंने हिंदी साहित्य में असाधारण ऊँचाइयों के आदर्श स्थापित किये!  
इस निचले स्तर से जो एक संघर्ष भरा रास्ता उन्होंने जीवनभर तय 
किया उसमें सदैव दिया, किन्तु पाया कुछ नहीं!  

उनका जीवन सदा ही "संघर्ष का प्रतीक" रहा इसीलिए उका काव्य उनका 
"श्रेष्ठतम आत्मदान" कहलाने का अधिकारी है!  महादेवी जी ने लिखा भी 
है "उनके जीवन के चारों और लौह्सार का वह घेरा नहीं जो व्यक्तिह्गत 
विशेषताओं पर चोट भी करता है और बाहर की चोटों के लिए ढाल भी 
बन जाता है! उनके निकट  माता, भाई, बहन आदि के कोमल साहचर्य 
का अभाव का नाम ही शैशव रहा है!  जीवन का वसंत उनके लिए पत्नी
वियोग का पतझड़ बन गया है! आर्थिक कारणों ने उन्हें अपनी मात्र-
विहीन संतान के कर्तव्य-निर्वाह की सुविधा भी नहीं दी!  पुत्री के अंतिम 
वर्णों में वे निरुपाय दर्शक रहे और पुत्र को उचित शिक्षा से वंचित रखने 
के कारण उसकी उपेक्षा का पात्र बने! "


१९१८ में पत्नी मनोहरा देवी की म्रत्यु से और १९३५ में पुत्री सरोज की 
मृत्यु के बीच का सारा समय निराला ने संघर्षरत होकर ही बिताया!  
महिषादल की नौकरी, गढ़ाकोला में जमींदारी से बेदखली, कलकत्ते में 
दवाइयों के विज्ञापन से लेकर विवाह आदि के अवसर पर रचने का काम 
तक उन्हें करना पड़ा!  सरोज की मृत्यु के बाद तो जैसे उन्हें जीवन 
निरर्थक लगने लगा! सारा धैर्य चुकने लगा! "हो गया व्यर्थ जीवन/मैं 
रण में गया हार" - के रूप में उनके अविराम संघर्ष और निरंतर विरोध 
की परिणिति स्वाभाविक है!  

१९४० के बाद स्थिति और बिगड़ी और उन्हें अपने नयी कविताओं के 
छोटे-छोटे संकलन पानी के भाव बेच देने पड़े! निराला के जीवन संघर्ष 
का एक पक्ष और भी है और वह है - साहित्यिक संघर्ष!  इस क्षेत्र में भी 
उनका पुरजोर विरोध हुआ! कविता की मुक्ति को लेकर उन पर करारे 
प्रहार हुए, वहीँ उनकी अनेक रचनाओं को उनके जीवन काल में स्वीकृति 
भी नहीं मिल पाई!  सन १९३७-३८ तक विरोधियों के बीच खतरे को 
लेकर, संघर्ष करके उन्होंने जो कुछ भी स्थापित किया था १९४० के बाद 
उसकी रक्षा के लिए रक्षात्मक संघर्ष भी उन्हें करना पड़ा!  

डॉ. रामविलास शर्मा के शब्दों में "जाति प्रथा के समर्थक, रुढियों के दल, 
घर में दारु बाहर विष्णु सहस्रनाम, भारतीय संस्कृति के नाम पर निराला 
नाम से घृणा करने वाले- इन सबने मौखिक रूप से निराला के विरुद्ध 
प्रबल वातावरण बना रखा था!" प्रकाशकीय शोषण, आर्थिक विपन्नता, 
सामाजिक संघर्ष आदि ने निराला के मन पर बड़ा घटक प्रभाव डाला और 
१९४० के आसपास उनके जीवन में असंतुलन के चिन्ह दिखाई पड़ने लगे 
थे!  अभावों और दुखों से जूझते रहने के कारण ये असंतुलन बढ़ता ही 
गया और जैसा की डॉ. रामविलास शर्मा ने उल्लेख किया है कि सन 
१९४५ में वह अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था! किन्तु यह असंतुलन 
पागलपन नहीं था, क्योंकि यथार्थ जगत के प्रति असाधारण रूप से 
जागरूकता, गृहस्थी की छोटी-छोटी बातों का ध्यान, पत्रों में मन का 
संतुलन आदि उनमें निरंतर बना रहा था!  

१९५० से लेकर मृत्यु पर्यंत निराला अधिकतर प्रयाग में ही रहे!  उनका 
अंत तो बड़ा की कारुणिक था!  अंतिम समय में सरकारी सहायता से 
उनका इलाज होता रहा पर वे इसके लिए कभी लालायित नहीं रहे!  
अंतिम एक वर्ष उन्होंने गंभीर रोग और पीड़ा में कटा!  आजीवन 
संघर्षरत और लगभग अंतिम क्षणों तक काव्य-रचना में रत महाप्राण 
निराला १५ अक्टूबर १९६१ को चिर निद्रा में लीन हो गए!  

उनकी ये पंक्तियाँ (आराधना से उद्धृत) उनके अद्साव के क्षणों की कहानी 
कहती हैं -

दुखता रहता है अब जीवन,

पतझर का जैसा वन उपवन!

जहर-जहर कर जितने पत्र नवल,

कर  गए रिक्त तनु का तरुदल,

है चिन्ह शेष केवल संबल,

जिससे लहराया था कानन!

निराला के जीवन को आद्धन्त देखने पर उनके क्रन्तिकारी व्यक्तित्व से 
ही साक्षात्कार होता है!  सामाजिक जीवन और उसकी जीर्ण-शीर्ण 
मान्यताओं का निराला को कटु अनुभव था! और उन्होंने सबसे पहले 
अपने ऊपर अर्थात ब्राह्मणों पर ही प्रहार किया! रीतियों की विरुद्ध उन्होंने 
पुत्री सरोज और पुत्र रामकृष्ण के विवाह में विद्रोहीपूर्ण संकल्प की दृढ़ता 
का परिचय दिया!  सरोज के विवाह में कुछ साहित्यिक मित्रों के बीच 
पुरोहित का आसन भी स्वयं ग्रहण किया!  

तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम

मैं सामाजिक योग के प्रथम

लग्न के, पढूंगा स्वयं मन्त्र,

यदि पंडित जी होंगे स्वतंत्र  !

- अनामिका (सरोज स्मृति) - निराला 

साहित्यिक  रुढियों के प्रति भी निराला का विरोध था!  भाषा, भाव, छंद, 
शैली - सर्वत्र निराला की यह प्रवृति दिखलाई पड़ती है!  मुक्त छंद के रूप 
में तो उन्होंने कविता की ही घोषणा कर दी...."मनुष्यों की मुक्ति की तरह 
कविता की भी मुक्ति होती है!  मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से 
छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना 
है! 
(सन्दर्भ - कवि निराला)  

किस बात का संविधान ? किस बात का गणतंत्र ?

Thursday 26 January 2012

धीरेन्द्र अस्थाना 'धीरू' 
 
जिस देश में "गीता", "रामायण", "गुरुग्रंथ साहबजी", "महाभारत ", "चाणक्य निति, "अर्थ शास्त्र" जैसे महान ग्रन्थ, साहित्य का जन्म हुआ हो, वह देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, इटली, जर्मनी के सविधान से चुराए अनुच्छेदों से अपना सविंधान बनाए....

इससे बड़े शरम की बात और कोई नहीं हो सकता! पूरा विश्व गवाह है
की सभी भाषा की जननी "संस्कृत" भाषा हमारी है, सबसे पुरानी संस्कृति हमारी है!
तब भी हम अपना सविंधान चोरी करके बनाते है!

250 किलो का सविंधान वो भी अंग्रेजी में लिखा हुआ
आम नागरिक की समझ से परे
जिसे समझने के लिए भी काले कोट पहनकर वकालत सिखनी पड़ती है

250 किलो का सविंधान हमने बना तोह दिया
लेकिन ढाई ग्राम की भी काम की बात उसमे नहीं लिखी हुई है!

250 किलो का सविंधान
स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का गला घोंटता है
और अश्लीलता को पुरस्कार देता है....

खुद आंबेडकर ने १९५२ में कहा था की मेरा बस चले तो इस संविधान को जला डालूं

अंग्रेजो ने जान बुझ कर ऐसा संविधान थोपा ताकि किसी आम भारतीय को इस संविधान से कोई लाभ नहीं पहुंचे कोई न्याय न मिले आज भी देश की अदालतों में ३.४५ करोड़ मामले ४०-५० वर्षो से लंबित है

61 वर्षों बाद मकर संक्रांति पर होगा महायोग

Thursday 12 January 2012

लखनऊ |धीरेन्द्र अस्थाना 
मकर संक्रांति जो कि हर बार 14 जनवरी को मनाई जाती थी लेकिन इस बार 61 साल बाद दुर्लभ शुभ योगों का संयोग बन रहा है कि इस बार मकर संक्रांति 15 जनवरी दिन रविवार को मनाई जाएगी| संक्रांति 14 जनवरी की रात 12:58 से लगेगी। इसलिए मकर संक्रांति का पुण्य काल 15 जनवरी, रविवार को रहेगा। सूर्य का राशि परिवर्तन अद्र्धरात्रि में हो रहा है इसलिए सूर्योदय से पर्व काल शुरु होगा। 

इस दिन देव दर्शन, स्नान, दान के लिए 10 घंटे का पुण्यकाल रहेगा और सूर्य उपासना से सौ गुना अधिक फल मिलेगा। मकर संक्रांति पर्व से सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होंगे और मांगलिक कार्यों की शुरुआत हो जाएगी। ग्रहों के राजा सूर्यदेव की अगवानी का महापर्व है मकर संक्रांति| भारतीय ज्योतिष में 12 राशियों में से एक मकर राशि में सूर्य के प्रवेश को मकर संक्रांति कहते हैं। मकर संक्रांति शिशिर ऋतु की समाप्ति और वसंत के आगमन का प्रतीक माना जाता है।

हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार ने बताया है कि श्रद्धालुओं को एक साथ इन शुभ योगों का लाभ मिलेगा। यह आकाशीय सितारों के अनुसार दुर्लभ और श्रेष्ठ है। लंबे अरसे से मकर संक्रांति 14 जनवरी को मनाई जाती रही है, जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायण होता है। सूर्य के उत्तरायण होने के साथ ही शुभ कार्यों पर लगी रोक भी हट जाएगी।

इस दिन दान का विशेष महत्व हैं। विद्वानो के मत से मकर संक्रांति के दिन धार्मिक साहित्य-पुस्तक इत्यादी धर्म स्थलों में दान किये जाते हैं। इस दिन अपने परिजनों सहित पूर्वजों के नाम से गाय को चारा, गणेशजी के मंदिर में तिल, लक्ष्मी मंदिर में शहद, शिव मंदिर में चावल तथा विष्णु व कृष्ण मंदिर में माखन का दान करने से विशेष फल प्राप्त होगा।

आइए हिंग्लिश लादें

Wednesday 4 January 2012


  मधुकर उपाध्याय
भाषा के अखाड़े की कुश्तियां अक्सर दिलचस्प होती हैं। उन लोगों के लिए, जो खुद को भाषा का असल पैरोकार समझते हैं, यह दंगल थोड़ा और रोचक होता है। यह देखना वैसे भी कम हैरान नहीं करता कि इस अखाड़े में अक्सर सिर्फ अपनी ताकत, कुव्वत और दांव-पेच से काम नहीं चलता। यह तय नहीं होता कि वही जीतेगा, जो बेहतर है क्योंकि यहां बेहतर होने के पैमाने अलग होते हैं। शब्दों की पहलवानी के नियम जुदा हैं और वह हर कुछ फासले और वक्त के साथ बदलते रहते हैं। यानी कि आज जो उसूल आयद हैं, कल सिरे से गायब हो सकते हैं।

इन अखाड़ों में गहमागहमी हमेशा रहती है। ऐसा कोई समय नहीं आता कि सब तय हो जाए और उसके बाद अरसे तक कायम रहे। वजह यह कि इन दंगलों के अनेक स्तर होते हैं, जिसमें कई बार आजमाइश अपनों से ही होती है। तत्सम और तद्भव भिड़ जाते हैं। बाजार बीच में आ खड़ा होता है। उसकी अपनी जरूरतें हैं और अपना अंदाज। हर शब्द को बाजार-वाणिज्य के तराजू पर तौलता। कुछ इस जिद के साथ कि शब्द तो चले, लेकिन हिज्जे लिखे दूसरी लिपि में जाएं। चलें, पर बैसाखी के सहारे।
भाषा के दंगल में समाज केवल ताली बजाता दर्शक नहीं होता, खुद दंगल में शामिल होता है। उकसाता, भड़काता और गाहे-बगाहे सहारा देता। उसके लिए जुबान की सहूलियत शायद सबसे बड़ी चीज होती है। वैयाकरणी अलग जूझते हैं। उनकी दरकार होती है कि अखाड़े में शब्द चाहे जो जीते, व्याकरण उसी का रहे। स्टेशनों पर गाड़ियां रुकें, स्टेशन बेकार रहें। रेलें चलें, बसें चलें। कंप्यूटरों पर काम हो। उसकी तकलीफ यह है कि कुछ लोग अब इसे तोड़ने पर तुल गए हैं।
समाज, बाजार और भाषाविदों के बाद शब्दों की अखाड़ेबाजी का चौथा हिस्सा उसे हुकूमत से जोड़ता है। वहां थोड़ी-सी मजबूरी और थोड़ी फूं-फां वाली अकड़ कि जो हम कहें, वही सही। बेशक वह किसी की समझ में न आए। इसी का एक और पहलू सियासत। जैसे कहता हो कि तुम्हारा लड़ना-भिड़ना सब ठीक, मगर असल अखाड़ा तो राजनीति का है। पहलवान जो भी हो, उसे दायरे में रहना ही पड़ेगा। इस अकड़ और जिद को झटका उसी वक्त लगता है, जब उसे लोगों तक पहुंचना होता है। चुनावों के समय। अचानक, उस दौर में तस्वीर फिर गड््डमड््ड हो जाती है। सरकारें तब उसे डंडे से हांकने लगती हैं।
कुल मिला कर भाषा का अखाड़ा उतना आसान नहीं है, जितना ऊपर से दिखता है। इसमें धोबीपाट पड़ता है, तब भी आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता कि जो चित हुआ, वह हार गया। हो सकता है असलियत में वही जीत गया हो और जीतने वाला बाहर धूल झाड़ता खड़ा हो। इंतजार में कि कल उसका वक्त आएगा। उसे इस तरह हाजिर मान लिया जाएगा जैसे कि वह कुर्सी, मेज की तरह तुर्की या गिलास, लालटेन की तरह अंग्रेजी से न आया हो। हिंदी भाषा के मामले में समस्या और जटिलता दूसरी भाषाओं के मुकाबले कहीं अधिक है। वैसे तो सभी भाषाएं अन्य जगहों से शब्द ग्रहण करती हैं, हिंदी अपनी बोलियों की भी शुक्रगुजार है, हालांकि उनकी तरफ देखना उसने लगभग छोड़ दिया है। जनसंख्या आयोग के मुताबिक ऐसी उनचास बोलियां हैं, जहां से हिंदी ने अपना शब्द भंडार बनाया। कुछ शब्द लिए, कुछ को अपने अनुकूल बनाया, कुछ के अर्थ बदल दिए।
लेकिन इसमें वक्त लगता है। कई बार बहुत ज्यादा। इतना वक्त अक्सर राजनीति के पास नहीं होता। उसे तो जब चाहिए, सब तुरत-फुरत चाहिए। इसी हड़बड़ी में सरकार डंडा उठा लेती है, हांकना शुरू कर देती है। यह कोई आज की बात नहीं है। सदियों से यही होता आया है। हर भाषा में, हर दौर में। निजाम के हैदराबाद में दीवान रहे मदन्ना ने इसका रास्ता ढूंढ़ने की कोशिश की, क्योंकि रियासत में धर्म की जुबान अरबी, शासन की फारसी, बाहर से आए लोगों की तुर्की, यमनी और स्थानीय निवासियों की तेलुगू, उर्दू और दकनी हिंदी थी। सब काबिल, सब जरूरी। पर इतनी सारी भाषाओं ने रास्ता दुश्वार बना दिया था। इसीलिए मदन्ना ने पहली बार त्रिभाषा फार्मूला सुझाया।
मदन्ना को शायद अंदाजा था कि भाषा के अखाड़े में कूद पड़ना आसान है, फतहयाब होकर बाहर निकलना करीब-करीब असंभव। उसमें दूरदर्शिता भी थी। गरज यह कि उसने हस्तक्षेप किया और नहीं भी किया। शब्दों को लड़ने-भिड़ने के लिए छोड़ दिया, इस शर्त के साथ कि फैसला जो भी हो, जब लिखा जाए तो समझ में आए। उसे यकीनन हुकूमत करना आता था कि बाद में फ्रांस और जर्मनी ने मदन्ना पर शोध किया। समझने की कोशिश की कि निजामशाही और मदन्नाशाही इस कदर कामयाब क्यों थी और कैसे थी।
आज के हुक्मरान और अफसरों में न तो मदन्ना वाली समझ है, न ही वह सलाहियत। जाहिर है, वे घबरा कर ऐसे फैसले कर बैठते हैं, जिनका बचाव खुद नहीं कर सकते। उनकी अधकचरा समझ में ‘भाषा बहता नीर’ तो है, लेकिन यह नहीं है कि नदी तटबंध तोड़ बैठेगी, तब क्या होगा। बैठे-बिठाए उन्होंने एक दिन फरमान जारी कर दिया कि भाषा समझ में आनी चाहिए, भले इसके लिए अंग्रेजी से कितने भी शब्द उधार क्यों न लेने पड़ें। बेवजह भाषा के अखाड़े में छलांग लगा दी, हालांकि जरूरत नहीं थी, क्योंकि समाज अपने ढंग से वही काम अपनी गति से कर रहा था।
केंद्र सरकार के राजभाषा विभाग का फैसला इसीलिए आपत्तिजनक और हास्यास्पद है। हालांकि उसने यह फरमान सिर्फ सरकारी महकमों के लिए जारी किया है कि भाषा को सरल और समझ में आने लायक बनाया जाए, लेकिन इस पर अमल की जल्दबाजी में गड़बड़ी कर दी। वे उदाहरण भी गड़बड़ हैं, जिनके आधार पर सरकार इस नतीजे पर पहुंची। हिंदी का मजाक उड़ाने के लिए रेलगाड़ी को ‘लौह पथ गामिनी’, तांगेवाले को ‘द्विचक्र अश्वरथ परिचालक’ और सिगरेट को ‘श्वेत धूम्र दंडिका’ कोई नहीं कहता। लेकिन कोई उसे उदाहरण माने तो लोग क्या करें?
इसका हल इतना आसान भी नहीं है कि एकाध प्रयोगधर्मी, अंग्रेजीपरस्त अखबार सामने रख दिए जाएं और कहा जाए कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को प्रेसीडेंट और पीएम लिखने लगिए। अंग्रेजी शब्द जुबान पर चढ़े हैं और इससे बात आसानी से समझ में आएगी। ‘क्रिकेटर्स के लिए भारी क्राउड’ उतना ही हास्यास्पद है, जितना कि ‘लौह पथ गामिनी’। संगणक और कुंजीपटल हट जाएं तो किसी को परेशानी नहीं है। परेशानी इस बात की है कि उन्हें अपने आप हटने नहीं दिया जा रहा है, डंडा मार कर हटाया जा रहा है। यह भाषा के नियमों का सरासर उल्लंघन है और ‘हिंग्लिश’ थोपने जैसा है। अंग्रेजीपरस्ती के अलावा यह अतिउत्साह और जल्दी से जल्दी कुछ कर गुजरने की इच्छा का कुफल है।
सरकार भी क्या करे। उसके पास समय की भारी कमी है। सौ-पचास बड़ी समस्याएं उसके सिर पर हमेशा रहती हैं। ऐसे में अगर राजभाषा विभाग की हिंदी समिति की बैठक चार-पांच साल में एक बार होती है तो बेचारे विभाग को अपनी ओर से पहल करनी ही पड़ती है। दिक्कत यह है कि हर सरकारी अफसर मदन्ना नहीं हो सकता। वह क्षमता और प्रतिभा दुर्लभ थी। किसी सरकारी महकमे से उसकी उम्मीद खुद को फरेब देने जैसी ही है। लोग यह फरेब खाने को तैयार नहीं हों तो यह बदकिस्मती यकीनन सरकार की है।
तर्क यह कतई नहीं है कि भाषा के अखाड़े के शब्दों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। ऐसा करने में कोई समस्या नहीं है पर इसमें समय बहुत लग सकता है। समस्या यह है सरकारी फरमान और उसका डंडा यह मान कर चलता है कि उस अखाड़े में लोग, समाज, बाजार और जुबान की सहूलियतें हैं ही नहीं। जो करना है, उसे ही करना है वरना भाषा समझ में नहीं आएगी। यह अखाड़े की ठेकेदारी और आला दर्जे की अहमकाना दादागिरी है, जिसे भाषा से पहले उसे बरतने वाले लोग ही खारिज कर देंगे। उन्हें ऐसा करना भी चाहिए।

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