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महाकवि निराला-एक क्रांतिकारी का संघर्ष (जन्मदिवस पर विशेष)

Friday 27 January 2012



अंजू शर्मा 

महाकवि निराला की कवि-चेतना का विकास जिस वातावरण में हुआ था 
उसे स्वछंदतावादी नवजागरण का परिवेश कहा जा सकता है!  जीवन 
और समाज के प्रति उनके दृष्टिकोण में सदैव ही समाज के कल्याण की 
भावना नितित थी! 

स्वछंदतावादी विचारधारा ने समाज के हर क्षेत्र में क्रांति उत्पन्न कर दी 
थी!  साहित्य स्वयं में साध्य नहीं वह तो समाज सापेक्ष ही होता है! 
कबीर जैसे निर्भीक और पौरुष से ओत-प्रोत निराला का व्यक्तित्व किसी 
भी ढोंग और संकोच से कोसों दूर था!  यूँ भी परंपरागत सामाजिक 
रुढियों और वर्जनाओं का विरोध स्वछंदतावाद का मुख्य स्वर रहा है!  
इन मायनो में निराला सच्चे अर्थों में स्वछंदतावादी थे!  

निराला एक ऐसे साहित्यकार थे, जिनके साहित्य की चर्चा उनके जीवन 
संघर्ष और व्यक्तित्व की चर्चा के बिना अधूरी ही रहती है!  जीवन में 
घटित घटनाओं और साहित्य में उसकी अभिव्यक्तियों के बीच निराला 
की एक लम्बी अंतर्यात्रा है!  यह अंतर्यात्रा न केवल उन जैसे संवेदनशील 
रचनाकार के लिए महत्वपूर्ण है अपितु साहित्यिक दृष्टि से भी उसकी 
उपेक्षा करना संभव नहीं है!  क्योंकि घटना से कहीं अधिक महत्वपूर्ण वह 
आत्ममंथन है, वह प्रवाह है, जो उस अंतर्यात्रा के बीच परिचालित होता 
है!  वस्तुतः निराला की रचनाएँ उनके व्यक्तित्व का साक्षात् प्रतिबिम्ब हैं! 
देखा गया है कि निराला के व्यक्तित्व की चर्चा उनकी कृतियों के 
सामानांतर हुई है! निराला अपने जीविकोपार्जन तक के लिए सदा ही 
संघर्षरत रहे, फिर भी वे उन अत्यंत साधारण लोगों में गिने जाते थे 
जिन्होंने हिंदी साहित्य में असाधारण ऊँचाइयों के आदर्श स्थापित किये!  
इस निचले स्तर से जो एक संघर्ष भरा रास्ता उन्होंने जीवनभर तय 
किया उसमें सदैव दिया, किन्तु पाया कुछ नहीं!  

उनका जीवन सदा ही "संघर्ष का प्रतीक" रहा इसीलिए उका काव्य उनका 
"श्रेष्ठतम आत्मदान" कहलाने का अधिकारी है!  महादेवी जी ने लिखा भी 
है "उनके जीवन के चारों और लौह्सार का वह घेरा नहीं जो व्यक्तिह्गत 
विशेषताओं पर चोट भी करता है और बाहर की चोटों के लिए ढाल भी 
बन जाता है! उनके निकट  माता, भाई, बहन आदि के कोमल साहचर्य 
का अभाव का नाम ही शैशव रहा है!  जीवन का वसंत उनके लिए पत्नी
वियोग का पतझड़ बन गया है! आर्थिक कारणों ने उन्हें अपनी मात्र-
विहीन संतान के कर्तव्य-निर्वाह की सुविधा भी नहीं दी!  पुत्री के अंतिम 
वर्णों में वे निरुपाय दर्शक रहे और पुत्र को उचित शिक्षा से वंचित रखने 
के कारण उसकी उपेक्षा का पात्र बने! "


१९१८ में पत्नी मनोहरा देवी की म्रत्यु से और १९३५ में पुत्री सरोज की 
मृत्यु के बीच का सारा समय निराला ने संघर्षरत होकर ही बिताया!  
महिषादल की नौकरी, गढ़ाकोला में जमींदारी से बेदखली, कलकत्ते में 
दवाइयों के विज्ञापन से लेकर विवाह आदि के अवसर पर रचने का काम 
तक उन्हें करना पड़ा!  सरोज की मृत्यु के बाद तो जैसे उन्हें जीवन 
निरर्थक लगने लगा! सारा धैर्य चुकने लगा! "हो गया व्यर्थ जीवन/मैं 
रण में गया हार" - के रूप में उनके अविराम संघर्ष और निरंतर विरोध 
की परिणिति स्वाभाविक है!  

१९४० के बाद स्थिति और बिगड़ी और उन्हें अपने नयी कविताओं के 
छोटे-छोटे संकलन पानी के भाव बेच देने पड़े! निराला के जीवन संघर्ष 
का एक पक्ष और भी है और वह है - साहित्यिक संघर्ष!  इस क्षेत्र में भी 
उनका पुरजोर विरोध हुआ! कविता की मुक्ति को लेकर उन पर करारे 
प्रहार हुए, वहीँ उनकी अनेक रचनाओं को उनके जीवन काल में स्वीकृति 
भी नहीं मिल पाई!  सन १९३७-३८ तक विरोधियों के बीच खतरे को 
लेकर, संघर्ष करके उन्होंने जो कुछ भी स्थापित किया था १९४० के बाद 
उसकी रक्षा के लिए रक्षात्मक संघर्ष भी उन्हें करना पड़ा!  

डॉ. रामविलास शर्मा के शब्दों में "जाति प्रथा के समर्थक, रुढियों के दल, 
घर में दारु बाहर विष्णु सहस्रनाम, भारतीय संस्कृति के नाम पर निराला 
नाम से घृणा करने वाले- इन सबने मौखिक रूप से निराला के विरुद्ध 
प्रबल वातावरण बना रखा था!" प्रकाशकीय शोषण, आर्थिक विपन्नता, 
सामाजिक संघर्ष आदि ने निराला के मन पर बड़ा घटक प्रभाव डाला और 
१९४० के आसपास उनके जीवन में असंतुलन के चिन्ह दिखाई पड़ने लगे 
थे!  अभावों और दुखों से जूझते रहने के कारण ये असंतुलन बढ़ता ही 
गया और जैसा की डॉ. रामविलास शर्मा ने उल्लेख किया है कि सन 
१९४५ में वह अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था! किन्तु यह असंतुलन 
पागलपन नहीं था, क्योंकि यथार्थ जगत के प्रति असाधारण रूप से 
जागरूकता, गृहस्थी की छोटी-छोटी बातों का ध्यान, पत्रों में मन का 
संतुलन आदि उनमें निरंतर बना रहा था!  

१९५० से लेकर मृत्यु पर्यंत निराला अधिकतर प्रयाग में ही रहे!  उनका 
अंत तो बड़ा की कारुणिक था!  अंतिम समय में सरकारी सहायता से 
उनका इलाज होता रहा पर वे इसके लिए कभी लालायित नहीं रहे!  
अंतिम एक वर्ष उन्होंने गंभीर रोग और पीड़ा में कटा!  आजीवन 
संघर्षरत और लगभग अंतिम क्षणों तक काव्य-रचना में रत महाप्राण 
निराला १५ अक्टूबर १९६१ को चिर निद्रा में लीन हो गए!  

उनकी ये पंक्तियाँ (आराधना से उद्धृत) उनके अद्साव के क्षणों की कहानी 
कहती हैं -

दुखता रहता है अब जीवन,

पतझर का जैसा वन उपवन!

जहर-जहर कर जितने पत्र नवल,

कर  गए रिक्त तनु का तरुदल,

है चिन्ह शेष केवल संबल,

जिससे लहराया था कानन!

निराला के जीवन को आद्धन्त देखने पर उनके क्रन्तिकारी व्यक्तित्व से 
ही साक्षात्कार होता है!  सामाजिक जीवन और उसकी जीर्ण-शीर्ण 
मान्यताओं का निराला को कटु अनुभव था! और उन्होंने सबसे पहले 
अपने ऊपर अर्थात ब्राह्मणों पर ही प्रहार किया! रीतियों की विरुद्ध उन्होंने 
पुत्री सरोज और पुत्र रामकृष्ण के विवाह में विद्रोहीपूर्ण संकल्प की दृढ़ता 
का परिचय दिया!  सरोज के विवाह में कुछ साहित्यिक मित्रों के बीच 
पुरोहित का आसन भी स्वयं ग्रहण किया!  

तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम

मैं सामाजिक योग के प्रथम

लग्न के, पढूंगा स्वयं मन्त्र,

यदि पंडित जी होंगे स्वतंत्र  !

- अनामिका (सरोज स्मृति) - निराला 

साहित्यिक  रुढियों के प्रति भी निराला का विरोध था!  भाषा, भाव, छंद, 
शैली - सर्वत्र निराला की यह प्रवृति दिखलाई पड़ती है!  मुक्त छंद के रूप 
में तो उन्होंने कविता की ही घोषणा कर दी...."मनुष्यों की मुक्ति की तरह 
कविता की भी मुक्ति होती है!  मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से 
छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना 
है! 
(सन्दर्भ - कवि निराला)  

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