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Monday 28 May 2012

3 साल में 16 बार बढ़े हैं पेट्रोल के दाम, अब कैसे चलेगा काम?

Wednesday 23 May 2012

केंद्र सरकार ने पेट्रोल बम फोड़कर आम आदमी की जेब को लहुलूहान करने की पूरी तैयारी कर ली है। एक न्यूज एजेंसी के हवाले से आई खबर के मुताबिक, पेट्रोल के दाम में प्रति लीटर 7.50 पैसे का इजाफा किया गया है। ऐसे में इस इजाफे को जोड़ते हुए पिछले 3 सालों में पेट्रोल की कीमतों में करीब 23 रुपये का इजाफा किया जा चुका है। वहीं डीजल को लेकर ये आंकड़ा 8 रुपये प्रति लीटर है। महंगाई से त्रस्त भारतीय जनता के लिए ये इजाफा कमर तोड़ने वाला है। 

धीरेंद्र अस्थाना 

दिलचस्प है कि पिछले तीन वर्ष के दौरान पेट्रोल 47 प्रतिशत और डीजल 25 प्रतिशत महंगा हुआ। 3 साल पहले पेट्रोल की कीमत करीब 44 रुपये प्रति लीटर थी, वहीं 7.50 रुपये के इजाफे से पहले ये आंकड़ा 67 रुपये के आस-पास बना हुआ था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संप्रग सरकार में पिछले 3 सालों में पेट्रोल-डीजल की कीमतें कई बार आसमान पर पहुंची हैं। 3 सालों की इस अवधि में पेट्रोल की कीमतों में 16 बार और डीजल के दामों में 5 बार इजाफा किया गया है। पेट्रोल 44 से बढ़कर करीब 67 रुपये और डीजल 33 रुपये से बढ़कर 41 रूपये हो गया है। सरकार ने 2 साल पहले पेट्रोलियम पदार्थों पर सब्सिडी के बढ़ते बोझ को कम करने के लिए इसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतों से जोड़ा था। जून 2010 में ऐसा होने के बाद पेट्रोल को प्रशासनिक मूल्य प्रणाली के दायरे से बाहर कर दिया गया था। इससे पेट्रोल पर सरकार का नियंत्रण लगभग खत्म हो गया था। इतना ही नहीं सरकार ने कंपनियों को वैश्विक बाजार कीमतों के आधार पर हर 15 दिन पर कीमतों में बदलाव तक की छूट दे दी थी।आंकड़ों के मुताबिक, 2 जुलाई 2009 को दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 44.72 रुपये प्रति लीटर थी। वहीं दिसंबर 2011 में ये कीमत 65 रुपये पर पहुंच गई थी। तीन साल की इस अवधि में नवम्बर 11 में पेट्रोल की कीमत ऊपर में 68.64 रुपये प्रति लीटर तक भी पहुंची। इस दौरान डीजल की कीमत 32.67 रुपए से बढकर 40.91 रुपए पर पहुंच गई। हालांकि इस अवधि के दौरान डीजल के दाम ऊपर में 41.29 रुपये प्रति लीटर तक भी पहुंचे।तेल कंपनियों की दुहाई है कि लागत से कम कीमत पर उत्पाद बेचने से सालाना उनकी अंडर रिकवरी लगभग एक लाख 39 हजार करोड रुपये तक पहुंच गई है जिससे कंपनियों की वित्तीय सेहत पर विपरीत असर पडा है।

केंद्र की संप्रग सरकार के विगत तीन साल महंगाई को परवान चढ़ाने वाले रहे हैं। उपभोक्ता वस्तुओं के दाम आसमान पर हैं। आम आदमी की जेब में खरीदने की ताकत नहीं बची है। इधर, महंगाई है कि सुरसा की तरह बढ़ती ही जा रही है।
गर्मी के इस दौर में बढ़ती कीमतों की दास्तान कोल्ड ड्रिंक्स से ही शुरू करते हैं। यह फैक्ट्री में बनता है और बनाने वाले इसकी लागत पर टैक्स जोड़ कर उपभोक्ताओं से दाम वसूलते हैं। लेकिन खुदरा विक्रेता इन चीजों की मनमानी कीमतें वसूलते हैं। नियंत्रण करने वाला कोई नहीं।
इसी तरह हरी सब्जी, मछली मांस जैसी चीजों के दाम पर कोई अंकुश ही नहीं। आलू चौदह रुपये प्रति किलो की दर से मिल रहा है। कोई भी सब्जी पचीस रुपये प्रति किलो से कम नहीं बिक रही। विगत तीन साल में जिस मूल्य वृद्धि ने लोगों की जेब पर सर्वाधिक डाका डाला है, वह है गृह निर्माण वस्तुओं की कीमत में बेतहाशा बढ़ोतरी। सीमेंट के दाम तीन साल में तीन गुना बढ़े हैं। ईट, बालू, बांस, लकड़ी, राज मिस्त्री की मजदूरी, लेबर चार्ज आदि में इतनी बढ़ोतरी हुई है कि मकान बनाना अब साधारण कार्य नहीं रहा।
डीजल, पेट्रोल, किरासन, कूकिंग गैस यहां तक कि जलावन के दाम भी बेहद बढ़े हैं।वहीं, महंगाई की मार से यात्रा भी महंगी हो गयी है। बस भाड़ा, रिक्शा, टमटम, आटो आदि के किराये अब आम आदमी की जेब की भरपूर सफाई कर रहे हैं। 


हर उपहार से बड़ा माँ का उपकार

Saturday 12 May 2012


  • धीरेन्द्र अस्थाना  
माँ! एक ऐसा शब्द है जो याद आते ही हमारे जहन में एक फुरफुरी-सी दौड़ने लगती है। चाहे वह कोई भी माँ, किसी की भी माँ हो सभी के लिए एक समान ही यह गरिमामय भाव अंतर्मन में दौड़ता रहता है। माँ को जितने भी शब्दों से नवाजा जाएँ वे अपने आप में कम ही रहेंगे। क्योंकि माँ वो गरिमामय शब्द है जिसकी व्याख्या करना बहुत ही मुश्किल है। 
माँ का सफर जन्म होने के दिन से ही शुरू हो जाता है। सभी को यह लगता है कि एक बेटी ने जन्म लिया है इसका मतलब है उसने अपनी जिंदगी में सीढ़ी दर सीढ़ी काम करते ही चले जाना है। पहले एक बेटी, फिर एक युवा, फिर एक बहू और पत्नी फिर आता है माँ बनने का सफर। माँ बनने के साथ ही उसके अपने सारे हक, उसकी अपनी सारी इच्छाएँ और महत्वाकाँक्षाएँ भुला कर उसे अपने कर्तव्यों को निभाने की जिम्मेदारी से सरोबार होना पड़ता है। फिर भले ही इन सब में उसकी इच्छा हो ना हो। उसे इन सारे दौर से गुजरना ही पड़ता है। चाहे मन से चाहे अमन से लेकिन उसके जन्म के साथ ही ये सारे उसके साथी बन जाते हैं। 
एक बेटी के सफर तय करते और उसके माँ बनने के पूर्व ही ससुराल वालों की निगाहें उस पल का इंतजार थामे होती है कि वह बेटे की माँ बनती है या बेटी की। माँ बनना ससुराल वालों के लिए इतना मायने नहीं रखता जितना उसका बेटे को जन्म देना मायने रखता है। 
बेटा-बेटी की आँस लिए माँ बनने का उसका यह सफर सही मायने में यही से शुरू हो जाता है। अगर बेटे की माँ बन गई तो वह ससुराल वालों की आँखों का तारा बन जात‍ी है उसके उलटे अगर बेटी को जन्म दिया है तो इस दुख के साथ कि 'बेटी जनी है' उसको तानो और कष्‍टों में ही अपना जीवन गुजारना पड़ता है। और तब यह बात और भी ज्यादा दुखद हो जात‍ी है जब वह दो-तीन ब‍ेटियों को जन्म दे चुकी होती हैं। 
वह खुद जो अभी-अभी माँ बनी है या माँ बनने जा रही है... वह माँ क्या चाहती है, उसे बेटा पसंद है या बेटी इस बात से किसी को कोई सरोकार नहीं होता। उसके दिल में चल रही कशमकश से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता! फर्क पड़ता है तो सिर्फ उस माँ को जिसने अभी-अभी उस बच्चे को जन्म दिया है। उस माँ का मन कसोटकर रह जाता है पर फिर भी क्या लोग उसके मन की भावनाएँ, उसके मन की उलझन को समझने की कोशिश करते हैं। नहीं करते...! लेकिन फिर भी वो माँ अपने सारे गमों को भुलाकर, जीवन में आ रही हर परेशानी को अपने दूर रखकर अपना सारा प्यार-दुलार अपने बच्चे पर उंडेलकर अपनी मा‍तृत्व की छाँव उस पर ढाँके रख‍ती है। ऐसी माँ का 'आदर' स्वरूप सिर्फ एक दिन मदर्स डे मनाकर कभी भी नहीं किया जा सकता। ऐसी माँ के लिए तो मानव जीवन ही कुर्बान होना चाहिए। ऐसी देवी माँ हो या साधारण माँ जिसने भगवानों से लेकर कई महापुरुषों, कई वीरांगनाओं जन्म देकर हमारी देश-दुनिया को कई अविस्मरणीय संतानों ने नवाजा है। ऐसी माँ के‍ लिए तो हर दिन मनाया गया मातृ दिवस भी उसके उपकारों के आगे कम पड़ जाएगा। ऐसी ही माँ जननी को मातृ दिवस यानी मदर्स डे पर मेरा श‍त-शत नमन....। 

हे माँ.........! आपकी महिमा अपरंपार है...।

हैप्पी मदर'स डे के मौके पर माँ को भेट  

कानून नहीं आचरण का विषय है भ्रष्टाचार

Tuesday 8 May 2012




जयराम शुक्ल
शरद जोशी ने कोई पैतीस साल पहले 'हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे' व्यंग्य निबंध रचा था। तब यह व्यंग्य था, लोगों को गुदगुदाने वाला। भ्रष्टाचारियों के सीने में नश्तर की तरह चुभने वाला। अब यह व्यंग्य, व्यंग्य नहीं रहा। यथार्थ के दस्तावेज में बदल चुका है। भ्रष्टाचार की प्राण-प्रतिष्ठा के साथ ही व्यंग्य की मौत हो गई। समाज की विद्रूपताओं की चीर-फाड़ करने के लिए व्यंग्य का जन्म हुआ था। परसाईजी ने व्यंग्य को शूद्रों की जाति में रखते हुए लिखा था व्यंग्य चरित्र से स्वीपर है। वह समाज में फैली सड़ांध में फिनाइल डालकर उसके कीटाणुओं को नाश करने का काम करता है। जोशी-परसाई युग में सदाचार, लोकलाज व सामाजिक मर्यादा के मुकाबले विषमताओं, विद्रूपताओं और भ्रष्टाचार का आकार बेहद छोटा था। व्यंग्य उन पर प्रहार करता था। लोग सोचने-विचारने के लिए विवश होते थे। भ्रष्टाचार का स्वरुप इतना व्यापक नहीं था। व्यंग्य कब विद्रूपता के मुंह में समा गया पता ही नहीं चला। वेद पुराणों में भगवान का यह कहते हुए उल्लेख है कि हम भक्तन के भक्त हमारे। जोशी जी ने भ्रष्टाचार के लिए यही भाव लिया था।
आज के दौर के बारे में सोचते हुए लगता है कि हमारे अग्रज साहित्यकार कितने बड़े भविष्यवक्ता थे। भ्रष्टाचार, सचमुच भगवान की तरह सर्वव्यापी है, कण-कण में, क्षण-क्षण में। इसे संयोग ही कह सकते हैं कि भगवान की परिभाषा और उनकी महिमा जो कि वेद-पुराणों में वर्णित है सब हूबहू भ्रष्टाचार के साथ भी लागू होती है। गोस्वामी ने लिखा, बिन पग चलै, सुनै बिन काना कर बिनु कर्म करै विधि नाना। बिन वाणी वक्ता बड़ जोगी़... आदि-आदि। मंदिर में, धर्माचार्यों के बीच भगवान की पूजा हो न हो, भ्रष्टाचारजी पूरे विधि-विधान से पूजे जाते हैं।
नित्यानंद, निर्मलबाबा से लेकर धर्माचार्यों की लंबी कतार है जिन्होंने मंत्रोच्चार और पूरे कर्मकांड के साथ भ्रष्टाचार की प्राण-प्रतिष्ठा की है और हम वहां शीश नवाने पहुंचते हैं। भगवान को माता लक्ष्मी प्रिय है तो भ्रष्टाचारजी को भी लक्ष्मीमैया अतिप्रिय। रूप बदलने, नए-नए नवाचार और अवतार में भी भ्रष्टाचार का कोई सानी नहीं। आज के दौर में परसाई जी-शरद जोशी जी होते तो भ्रष्टाचार को लेकर और क्या नया लिखते! उनके जमाने में एक-दो भोलाराम यदाकदा मिलते जिनके जीव पेंशन की फाइलों में फड़फड़ाते। आज हर रिटायर्ड आदमी भोलाराम है, फर्क इतना कि वह परिस्थितियों से समझौता करते हुए परसेंट देने पर राजी है। परसेंट की यह कड़ी नीचे से ऊपर तक उसी तरह जाती है जैसे राजीव गांधी का सौ रुपया नीचे तक दस पैसा बनकर पहुंचता है।
पिछले कुछ दिनों से भ्रष्टाचार पर भारी बहस चल रही है। भ्रष्टाचारी भी भ्रष्टाचार पर गंभीर बहस छेड़े हुए हैं। चैनलों ने इसे प्रहसन का विषय बना दिया। बंगारू लक्ष्मण को सजा पड़ गई तो इस पर लगातार प्रहसन रचा जा रहा है। टीवी चैनलों में कभी-कभी बहस इतनी तल्ख हो जाती है कि मोहल्लों में औरतों के बीच होने वाले झगड़ों का दृश्य उपस्थित हो जाता है। एक कहती है..तू रांड तो दूसरी जवाब देती है तू रंडी़.. एक ने कहा तुम्हारी पार्टी भ्रष्ट तो दूसरा तड़ से जवाब देता है, तुम्हारी तो महाभ्रष्ट है। टीवी शो में भाजपा के एक प्रतिभागी ने कहा, बंगारू जी से बस इतनी गलती हो गई कि उन्होंने कांग्रेस में जाकर प्रशिक्षण नहीं लिया था। वे लाखों गटक लेते हैं और पता भी नहीं चलता जैसे कि कांग्रेसी लाखों करोड़ यूं ही हजम कर जाते हैं।
भ्रष्टाचार अब बुद्घिविलास का विषय बन चुका है। चमड़ी इतनी मोटी हो गई कि व्यंग्य की कौन कहे गालियां तक जज्ब हो जाती हैं। एक नया फार्मूला है खुद को ईमानदार दिखाना है तो दूसरों को जोर-जोर से बेईमान कहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई भी कर्मकांडी हो गई है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ईमानदारी की अलख जगाने वाले नए पंडों के रूप में अवतरित हुए हैं। संसद पर हमले के गुनहगार अफजल गुरू की मुक्ति के लिए अभियान चलाने वाले और उद्योगपतियों के खिलाफ याचिका में फोकट का इन्टरविनर बनने वाले पिता-पुत्र की जोड़ी शांति भूषण और प्रशान्त भूषण टीम अन्ना की नीति तय करते हैं। मंचीय कवियों का गिरोह चलाने वाले मसखरे कुमार विश्वास अन्ना की सभाओं का संचालन करते हैं। योग सिखाने के लिए निर्मल बाबा की तर्ज पर करोड़ों की फीस वसूलने वाले बाबा रामदेव नैतिकता का पाठ सिखाते हैं। रंगमंच पर यही सब नाटक चल रहा है।
अन्ना के आव्हान पर कैण्डल मार्च निकालने वाले भ्रष्टाचार से लड़ने चंदे के पैसे से दिल्ली तो कूंच कर सकते हैं पर अपने गांव के उस सरपंच के खिलाफ बोलने से मुंह फेर लेते हैं जो गरीबों का राशन और मनरेगा की मजदूरी में हेरफेर कर दो साल के भीतर ही बुलेरो और पजेरो जैसी गाड़ियों की सवारी करने लगता है। इसके खिलाफ हम इसलिए कुछ नहीं बोल पाते क्योंकि यह हमारा अपना बेटा, भाई, भतीजा और नात-रिश्तेदार हो सकता है। जब शहर के अखबार गायों की तस्करी और उनके कटने का मुद्दा उठाते हैं तब अपने धर्म-धुरंधर लोग कश्मीर से धारा 370 उठाने के लिए धरने पर बैठते हैं। ये दिल्ली के भ्रष्टाचार पर बहस करते हैं, अपने गांव व शहर की बात करने से लजाते हैं, भ्रष्टाचारी कौन है? यह दिया लेकर खोजने का विषय नहीं है। समाज में भ्रष्टाचार की प्राण-प्रतिष्ठा करने वाले लोग कौन हैं? यह अलग से बताने की बात नहीं है, हम सबने मिलकर भ्रष्टाचार को अपने आचरण में जगह दी है।
जिस दिन कोई पिता अपने बेटे को इसलिए तिरष्कृत कर देगा कि उसके भ्रष्टाचार की कमाई से बनी रोटी का एक टुकड़ा भी स्वीकार नहीं करेगा, कोई बेटा बाप की काली कमाई के साथ बाप को भी त्यागने का साहस दिखाएगा, परिवार और समाज में भ्रष्टाचार करने वालों का सार्वजनिक बहिष्कार होने लगेगा, उस दिन से ही भ्रष्टाचार की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी। क्योंकि भ्रष्टाचार कानून से ज्यादा आचरण का विषय है। कत्ल करने वाले को फांसी दिए जाने का प्रावधान है लेकिन कत्ल का सिलसिला नहीं रुका है। कत्ल भी हो रहे हैं और फांसी भी। भ्रष्टाचारियों को कानून की सजा देने मात्र से भ्रष्टाचार रुकने वाला नहीं। क्या कोई अपने घर से भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़नें की शुरुआत करने को तैयार है? 
(लेखक दैनिक स्टार समाचार के संपादक हैं।)

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