लाइव यूथ Times @. Powered by Blogger.

Translate

My Blog List

समय ने फेरा बच्चों के खेल पर पानी

Thursday 6 March 2014

धीरेन्द्र अस्थाना 
वो ज़माना गया जब लोग कहते थे कि पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब। अब तो माता-पिता चाहते हैं के उनका बेटा सचिन, सहवाग या विराट कोहली जैसा बने। वहीं, बेटी हो तो वह साइना नेहवाल या सानिया मिर्ज़ा जैसी बने लेकिन यह सिक्के का सिर्फ एक पहलू है। आज ऐसे माता-पिता की कमी नहीं है जो अपने बच्चे के लिए पूरा समय नहीं निकाल पाते हैं। वे उनके खेल पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। बच्चों की अपनी दुनिया बन जाती है और अभिभावकों की अपनी।
बच्चों के खेल पर नहीं रहा ध्यान-
गुड़गांव के शुभम को क्रिकेट खेलने का शौक है। कॉलोनी की टीम का वह कैप्टन भी है मगर शुभम क्रिकेट की हर बारीकी को जानना चाहता है, उसकी सही तरीके से ट्रैनिंग लेना चाहता है। इसके लिए उसे पिता की मदद चाहिए जो उसे किसी अच्छे ट्रेनिंग स्कूल में दाखिला दिला सकें, उसके साथ खेल सकें या उसकी वर्जिश पर थोड़ा ध्यान दे सकें लेकिन अफसोस की बात है कि पिता का पास बेटे के लिए वक्त ही नहीं है। वैसे इस हालात से जूझने वाला शुभम अकेला नहीं है। मेट्रो शहरों में रहने वाले कई बच्चों के साथ यह समस्या आ रही है। हाल ही में ब्रिटिश टॉय एवं हॉबी एसोसिएशन द्वारा हुआ सर्वे इस बात पर मुहर भी लगाता है। इस सर्वे के अनुसार, करीब एक चौथाई माता-पिता के पास अपने बच्चे को स्पोर्ट्स या ट्रेनिंग सेशन में ले जाने का समय नहीं है। नतीजा यह है कि बच्चों के सर्वांगीण विकास पर असर पड रहा है। वे खेल से, मैदान से दूर होते जा रहे हैं। पहले वे स्कूल में पढ़ाई करते है, फिर ट्यूशन, उसके बाद होमवर्क और बाकी बचा समय उनका टीवी देखने या वीडियो गेम खेलने में गुजर जाता है। यूं कहें कि बच्चों में वह स्फूर्ति नहीं आ पाती है जो अमूमन खेलों से मिलती है।
वक्त की कमी-
ऐसा नहीं है कि अभिभावकों को इस बात का अहसास नहीं है कि बच्चे के संपूर्ण विकास के लिए खेल-कूद कितना ज़रूरी है। वे सब कुछ जानते हुए भी खुद को लाचार महसूस करते हैं। नोएडा के एक मल्टी नेशनल कंपनी में काम करने वाले दीपक सारस्वत का बेटा 12 साल का हो गया है। उसकी ख्वाहिश है कि वह किसी अच्छे संस्थान से ट्रेनिंग ले ताकि भविष्य में एक उम्दा खिलाड़ी बन सके। दीपक वैसे तो अपने बेटे की किसी ख्वाहिश को पूरा करने से पीछे नहीं हटते लेकिन बेटे को साथ लेकिर ट्रेनिंग स्कूल जाना उनके बस की बात नहीं है। वे कहते हैं, ‘मैं कंपनी के काम में इतना व्यस्त रहता हूं कि बच्चों के साथ समय बिताने का वक्त बमुश्किल मिल पाता है। जो भी थोड़ा समय मिलता है उसमे हम कहीं घूम आते हैं मगर हर दिन बेटे के साथ आउटडोर गेम खेलना या उसे किसी ट्रेनिंग सेंटर ले जाना मुमकिन नहीं है।’
कैरियर बनी प्राथमिकता-
बच्चों की यह कहानी सिर्फ नोएडा में ही नहीं बल्कि मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरू और हैदराबाद जैसे तमाम बडे शहरों में दोहराई जा रही है। मनोचिकित्सक अरूणा ब्रूटा कहती हैं कि मेट्रो शहरों में 50% से ज्यादा कामकाजी माता-पिता रोजाना करीब दो घंटे और वीकेंड में चार से पाँच ही अपने बच्चो के साथ बिताते हैं। इसमें ज़रूरी नहीं है कि वह सिर्फ स्पोर्ट्स जैसी गतिविधियों में ही उनका साथ दे पाएं। सीमित समय में प्राथमिक काम को तरजीह दी जाती है। दो बच्चों की माँ सीमा एक प्राइवेट कंपनी में काम करती हैं। उनका कहना है कि रोज़ 9-10 घंटे की शिफ्ट करने के घर का काम और बच्चों की देखभाल करनी होती है। ऐसे में घर-बाहर का संतुलन आसान नहीं होता है। सीमा कहती हैं कि उनके पति के पास तो वक्त की और भी किल्लत है। इसलिए बच्चों को पढ़ाने, उनसे बात करने, उनके साथ बैठकर टीवी देखने या फिर उनके साथ नाश्ता या खाना खाने का काम उनका ही होता है। इसके बाद इतना समय बचता ही नहीं कि वह उनके खेलकूद पर ध्यान दे सकें। कुछ ऐसा ही मोना सहगल के साथ भी है। दोनो पति-पत्नी फरीदाबाद में काम करते हैं। उनके पास सिर्फ वीकेंड होता है जब वह अपने बच्चों के साथ अच्छा समय गुजारतें हैं जिसमें शॉपिंग करना, रेस्तरां जाना आदि गतिविधियां शामिल होती हैं। जहां तक खेल की बात है तो बच्चे आपस में ही कुछ इंडोर गेम्स खेल लेते हैं।
काम है सब पर भारी-
दरअसल, मेट्रो शहरों की तेज़ रफ्तार जिंदगी और आर्थिक मजबूरियों की वजह से इन दिनों अधिकाशं घरों में माता-पिता दोनों काम करते हैं। जाहिर है, उन्हें कम समय में सारी जिम्मेदारियां पूरी करनी होती हैं। सुहासिनी के बेटे को फुटबॉल खेलना बेहद पसंद है। ऐसे में वह वक्त निकालकर हफ्ते में 2 या 3 दिन बेटे को ट्रेनिंग स्कूल ले जाती है लेकिन उन्हे लगता है कि वह ज्यादा दिनों तक ऐसा नहीं कर पाएंगी। उनके पति को लगता है कि स्कूल में फीजिकल एजुकेशन की क्लास बच्चों को सक्रिय रखने के लिए काफी है। हालांकि डॉक्टरों का कहना है कि स्कूल में होने वाले स्पोर्टिंग इवेंट बच्चों के शारीरिक विकास के लिए काफी नहीं है। बच्चे के साथ खेलने से वो ना सिर्फ उनसे जुड़ा हुआ महसूस करेंगे बल्कि उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा और वह महज टीवी पर ही खेलों का आनंद नहीं लेंगे, खुद खेलेंगे भी।

Media Dalal .com

About Me

My Photo
Live Youth Times
View my complete profile

khulasa.com