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आइए हिंग्लिश लादें

Wednesday 4 January 2012


  मधुकर उपाध्याय
भाषा के अखाड़े की कुश्तियां अक्सर दिलचस्प होती हैं। उन लोगों के लिए, जो खुद को भाषा का असल पैरोकार समझते हैं, यह दंगल थोड़ा और रोचक होता है। यह देखना वैसे भी कम हैरान नहीं करता कि इस अखाड़े में अक्सर सिर्फ अपनी ताकत, कुव्वत और दांव-पेच से काम नहीं चलता। यह तय नहीं होता कि वही जीतेगा, जो बेहतर है क्योंकि यहां बेहतर होने के पैमाने अलग होते हैं। शब्दों की पहलवानी के नियम जुदा हैं और वह हर कुछ फासले और वक्त के साथ बदलते रहते हैं। यानी कि आज जो उसूल आयद हैं, कल सिरे से गायब हो सकते हैं।

इन अखाड़ों में गहमागहमी हमेशा रहती है। ऐसा कोई समय नहीं आता कि सब तय हो जाए और उसके बाद अरसे तक कायम रहे। वजह यह कि इन दंगलों के अनेक स्तर होते हैं, जिसमें कई बार आजमाइश अपनों से ही होती है। तत्सम और तद्भव भिड़ जाते हैं। बाजार बीच में आ खड़ा होता है। उसकी अपनी जरूरतें हैं और अपना अंदाज। हर शब्द को बाजार-वाणिज्य के तराजू पर तौलता। कुछ इस जिद के साथ कि शब्द तो चले, लेकिन हिज्जे लिखे दूसरी लिपि में जाएं। चलें, पर बैसाखी के सहारे।
भाषा के दंगल में समाज केवल ताली बजाता दर्शक नहीं होता, खुद दंगल में शामिल होता है। उकसाता, भड़काता और गाहे-बगाहे सहारा देता। उसके लिए जुबान की सहूलियत शायद सबसे बड़ी चीज होती है। वैयाकरणी अलग जूझते हैं। उनकी दरकार होती है कि अखाड़े में शब्द चाहे जो जीते, व्याकरण उसी का रहे। स्टेशनों पर गाड़ियां रुकें, स्टेशन बेकार रहें। रेलें चलें, बसें चलें। कंप्यूटरों पर काम हो। उसकी तकलीफ यह है कि कुछ लोग अब इसे तोड़ने पर तुल गए हैं।
समाज, बाजार और भाषाविदों के बाद शब्दों की अखाड़ेबाजी का चौथा हिस्सा उसे हुकूमत से जोड़ता है। वहां थोड़ी-सी मजबूरी और थोड़ी फूं-फां वाली अकड़ कि जो हम कहें, वही सही। बेशक वह किसी की समझ में न आए। इसी का एक और पहलू सियासत। जैसे कहता हो कि तुम्हारा लड़ना-भिड़ना सब ठीक, मगर असल अखाड़ा तो राजनीति का है। पहलवान जो भी हो, उसे दायरे में रहना ही पड़ेगा। इस अकड़ और जिद को झटका उसी वक्त लगता है, जब उसे लोगों तक पहुंचना होता है। चुनावों के समय। अचानक, उस दौर में तस्वीर फिर गड््डमड््ड हो जाती है। सरकारें तब उसे डंडे से हांकने लगती हैं।
कुल मिला कर भाषा का अखाड़ा उतना आसान नहीं है, जितना ऊपर से दिखता है। इसमें धोबीपाट पड़ता है, तब भी आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता कि जो चित हुआ, वह हार गया। हो सकता है असलियत में वही जीत गया हो और जीतने वाला बाहर धूल झाड़ता खड़ा हो। इंतजार में कि कल उसका वक्त आएगा। उसे इस तरह हाजिर मान लिया जाएगा जैसे कि वह कुर्सी, मेज की तरह तुर्की या गिलास, लालटेन की तरह अंग्रेजी से न आया हो। हिंदी भाषा के मामले में समस्या और जटिलता दूसरी भाषाओं के मुकाबले कहीं अधिक है। वैसे तो सभी भाषाएं अन्य जगहों से शब्द ग्रहण करती हैं, हिंदी अपनी बोलियों की भी शुक्रगुजार है, हालांकि उनकी तरफ देखना उसने लगभग छोड़ दिया है। जनसंख्या आयोग के मुताबिक ऐसी उनचास बोलियां हैं, जहां से हिंदी ने अपना शब्द भंडार बनाया। कुछ शब्द लिए, कुछ को अपने अनुकूल बनाया, कुछ के अर्थ बदल दिए।
लेकिन इसमें वक्त लगता है। कई बार बहुत ज्यादा। इतना वक्त अक्सर राजनीति के पास नहीं होता। उसे तो जब चाहिए, सब तुरत-फुरत चाहिए। इसी हड़बड़ी में सरकार डंडा उठा लेती है, हांकना शुरू कर देती है। यह कोई आज की बात नहीं है। सदियों से यही होता आया है। हर भाषा में, हर दौर में। निजाम के हैदराबाद में दीवान रहे मदन्ना ने इसका रास्ता ढूंढ़ने की कोशिश की, क्योंकि रियासत में धर्म की जुबान अरबी, शासन की फारसी, बाहर से आए लोगों की तुर्की, यमनी और स्थानीय निवासियों की तेलुगू, उर्दू और दकनी हिंदी थी। सब काबिल, सब जरूरी। पर इतनी सारी भाषाओं ने रास्ता दुश्वार बना दिया था। इसीलिए मदन्ना ने पहली बार त्रिभाषा फार्मूला सुझाया।
मदन्ना को शायद अंदाजा था कि भाषा के अखाड़े में कूद पड़ना आसान है, फतहयाब होकर बाहर निकलना करीब-करीब असंभव। उसमें दूरदर्शिता भी थी। गरज यह कि उसने हस्तक्षेप किया और नहीं भी किया। शब्दों को लड़ने-भिड़ने के लिए छोड़ दिया, इस शर्त के साथ कि फैसला जो भी हो, जब लिखा जाए तो समझ में आए। उसे यकीनन हुकूमत करना आता था कि बाद में फ्रांस और जर्मनी ने मदन्ना पर शोध किया। समझने की कोशिश की कि निजामशाही और मदन्नाशाही इस कदर कामयाब क्यों थी और कैसे थी।
आज के हुक्मरान और अफसरों में न तो मदन्ना वाली समझ है, न ही वह सलाहियत। जाहिर है, वे घबरा कर ऐसे फैसले कर बैठते हैं, जिनका बचाव खुद नहीं कर सकते। उनकी अधकचरा समझ में ‘भाषा बहता नीर’ तो है, लेकिन यह नहीं है कि नदी तटबंध तोड़ बैठेगी, तब क्या होगा। बैठे-बिठाए उन्होंने एक दिन फरमान जारी कर दिया कि भाषा समझ में आनी चाहिए, भले इसके लिए अंग्रेजी से कितने भी शब्द उधार क्यों न लेने पड़ें। बेवजह भाषा के अखाड़े में छलांग लगा दी, हालांकि जरूरत नहीं थी, क्योंकि समाज अपने ढंग से वही काम अपनी गति से कर रहा था।
केंद्र सरकार के राजभाषा विभाग का फैसला इसीलिए आपत्तिजनक और हास्यास्पद है। हालांकि उसने यह फरमान सिर्फ सरकारी महकमों के लिए जारी किया है कि भाषा को सरल और समझ में आने लायक बनाया जाए, लेकिन इस पर अमल की जल्दबाजी में गड़बड़ी कर दी। वे उदाहरण भी गड़बड़ हैं, जिनके आधार पर सरकार इस नतीजे पर पहुंची। हिंदी का मजाक उड़ाने के लिए रेलगाड़ी को ‘लौह पथ गामिनी’, तांगेवाले को ‘द्विचक्र अश्वरथ परिचालक’ और सिगरेट को ‘श्वेत धूम्र दंडिका’ कोई नहीं कहता। लेकिन कोई उसे उदाहरण माने तो लोग क्या करें?
इसका हल इतना आसान भी नहीं है कि एकाध प्रयोगधर्मी, अंग्रेजीपरस्त अखबार सामने रख दिए जाएं और कहा जाए कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को प्रेसीडेंट और पीएम लिखने लगिए। अंग्रेजी शब्द जुबान पर चढ़े हैं और इससे बात आसानी से समझ में आएगी। ‘क्रिकेटर्स के लिए भारी क्राउड’ उतना ही हास्यास्पद है, जितना कि ‘लौह पथ गामिनी’। संगणक और कुंजीपटल हट जाएं तो किसी को परेशानी नहीं है। परेशानी इस बात की है कि उन्हें अपने आप हटने नहीं दिया जा रहा है, डंडा मार कर हटाया जा रहा है। यह भाषा के नियमों का सरासर उल्लंघन है और ‘हिंग्लिश’ थोपने जैसा है। अंग्रेजीपरस्ती के अलावा यह अतिउत्साह और जल्दी से जल्दी कुछ कर गुजरने की इच्छा का कुफल है।
सरकार भी क्या करे। उसके पास समय की भारी कमी है। सौ-पचास बड़ी समस्याएं उसके सिर पर हमेशा रहती हैं। ऐसे में अगर राजभाषा विभाग की हिंदी समिति की बैठक चार-पांच साल में एक बार होती है तो बेचारे विभाग को अपनी ओर से पहल करनी ही पड़ती है। दिक्कत यह है कि हर सरकारी अफसर मदन्ना नहीं हो सकता। वह क्षमता और प्रतिभा दुर्लभ थी। किसी सरकारी महकमे से उसकी उम्मीद खुद को फरेब देने जैसी ही है। लोग यह फरेब खाने को तैयार नहीं हों तो यह बदकिस्मती यकीनन सरकार की है।
तर्क यह कतई नहीं है कि भाषा के अखाड़े के शब्दों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। ऐसा करने में कोई समस्या नहीं है पर इसमें समय बहुत लग सकता है। समस्या यह है सरकारी फरमान और उसका डंडा यह मान कर चलता है कि उस अखाड़े में लोग, समाज, बाजार और जुबान की सहूलियतें हैं ही नहीं। जो करना है, उसे ही करना है वरना भाषा समझ में नहीं आएगी। यह अखाड़े की ठेकेदारी और आला दर्जे की अहमकाना दादागिरी है, जिसे भाषा से पहले उसे बरतने वाले लोग ही खारिज कर देंगे। उन्हें ऐसा करना भी चाहिए।

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