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मीडिया की हालत क्या कभी सुधरेगी?

Saturday 25 February 2012


धीरेन्द्र अस्थाना 
तीन सालों मे पहली बार ऐसा लगा कि सबसे बेकार और सबसे घटिया फील्ड मीडिया है. करियर के लिहाज से क्या मैं सही हूं ? कैमरों की चकाचौंध और ग्लैमर के पीछे की सच्चाई अगर मीडिया में आने से पहले लोग जान जाए तो मेरा दावा हैं कि 95 फीसदी छात्र जो मीडिया इंडस्ट्री मे करियर बनाना चाहते हैं वह अपना इरादा बदल लेंगे. सिर्फ वही आएंगे जिनका कोई गॉडफादर पहले से इस क्षेत्र मे किसी बड़े ओहदे पर हैं ।
हलाकि संघर्ष हर क्षेत्र मे हैं लेकिन संघर्ष के बाद हर क्षेत्र मे एक मुकाम दिखता हैं. करियर बनता है. लेकिन यहां हालात बिलकुल अलग हैं. यहाँ हालत ये है कि 10-15 सालों से इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग भी नौकरी के चक्कर में न्यूज चैनलों और अखबारों के दफ्तरों के चक्कर लगाते नजर आते हैं. फिर अंदाजा लगाया जा सकता हैं कि नए लोगों का क्या हाल होता है ।
कहना गलत नहीं होगा कि मीडिया भ्रष्टाचार के मामलें मे आज संसद और नेताओं से भी दो कदम आगे हैं. हालांकि अभी भी कुछ लोग ईमानदार हैं और ईमानदारी मेहनत और टैलेंट की कद्र करते हैं जिसकी बदौलत हम जैसे अनाथों (जिनका मिडीया मे कोई गॉडफादर नही हैं ) को ब्रेक मिल जाता हैं । अगर कोई सर्वेक्षण कराया जाए तो पता चलेगा कि अन्य सेक्टर की अपेक्षा सबसे ज्यादा हताश और सबसे ज्यादा असुरक्षित अपनी नौकरी को लेकर मीडिया प्रोफेशनल हैं. हकीकत ये है कि बड़े चैनलों और अखबारों को छोड़ दें तो लगभग सभी मीडिया हाउस के कर्मचारियों मे बदलते माहौल के हिसाब से घनघोर निराशा और हताशा बढ़ते जा रही हैं ।
मीडिया को देश का चौथा स्तंभ माना जाता था. “था” इसलिए कि अब यह कोई स्तंभ नही रहा. ये एक आम आदमी भी जानता है. यहां सबको अपनी नौकरी प्यारी है. चाहे वह चैनल हेड हो या मामूली कर्मचारी. वही खबर चलेगी जो मैनेजमेंट चाहता है. इसलिए सरोकारी पत्रकारिता तो बहूत दूर की कौड़ी हो गई हैं ।
क्यों विनोद दुआ, रवीश कुमार, दीपक चौरसिया, आशुतोष, संदीप, अर्नव गोस्वामी या राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकारों की तरह आज के दौड़ के पत्रकार वो मुकाम हासिल नहीं कर पाए जो इन लोगों ने कर लिया. क्या हिन्दुस्तान मे टैलेंट की कमी हो गई हैं जो अब कुछ गिने-चुने पत्रकारों को छोड़कर कोई ऐसा चेहरा सामने नहीं आ रहा । टैलेंट की कमी आज भी नहीं हैं लेकिन नए टेलेंट को वो मौका नहीं मिल रहा जिसकी बदौलत वे अपनी चमक बिखेर सके.
आज नौकरी सिर्फ उनलोगों की सुरक्षित है जो चापलूसी मे माहिर हैं या फिर जो इंडस्ट्री मे किसी तरह बहुत दिनों से जमे हुए हैं. देश मे शिक्षा का व्यवसायीकरण शुरु होते ही मीडिया संस्थानों और कॉलेजों की बाढ़ आ गई. इस तरह से प्रचारित किया जा रहा हैं कि एडमिशन से पहले ही छात्र को लगने लगता हैं कि वह पत्रकार बन गया. लेकिन असल कहानी तो तब शुरु होती हैं जब उसको काम के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती है.
हिन्दुस्तान में हर साल लगभग 18 हजार छात्र पास आउट करते हैं जिनमे 20 फीसदी तो उसी साल अपना प्रोफेशन बदल देते हैं, क्योंकि अगर कोई माई-बाप हैं इस क्षेत्र मे तब तो नौकरी पक्की समझो या आपकी किस्मत सही हुई और कोई सज्जन मिल गया तो आपका कल्याण हो जाएगा. जैसा मेरा हुआ. वरना 2 सालों की पढाई और पैसा दोनो बेकार और किसी दूसरे फील्ड मे नौकरी करने को मजबूर होना पड़ता. मुझे बखूबी याद है, हमारे बैच के कई लोग नौकरी ना मिलने से अपना प्रोफेशन ही बदल दिया या फिर 1 साल तक इंटर्नशीप करने के बाद अब जाकर उन्हें ब्रेक मिला है. इसलिए मै अपने आपको खुशकिस्मत समझता हूं.
हकीकत यह हैं ब्रेक मिलने के बाद भी 95 फीसदी नौजवान पत्रकारों को आगे कोई भविष्य नजर नहीं आता. अपने से बड़े और अनुभवी लोगों की बेचैनी और असहजता देखकर कभी-कभी मै भी हताश हो जाता हूं और मेरे जैसे कितने लोग हैं जिनको ये लगता हैं कि मीडिया मे आने का उनका फैसला शायद उनकी जिंदगी का सबसे गलत फैसला हैं क्योंकी 5-6 साल तक इस प्रोफेशन मे काम करने के बाद आप मजबूर हो जाते हैं यहां रुकने को. प्रोफेशन बदल नहीं सकते जो बदल लेते हैं वो पहले से बेहतर महसूस करते हैं ।
नए और अनाथ लोगों के लिए बडे चैनलों और अखबारों मे नौकरी करना तो कभी ना सच होने वाला सपने जैसा है. इसलिए लोग वहां जाने का प्रयास भी नहीं करते. लेकिन उससे भी टेढ़ी खीर अब नए चैनल और अखबारों में नौकरी पाना हो गया है.
पिछले दो सालों मे जितने नए चैनल और अखबार आए हैं उनकी हालत ये हैं कि चैनल शुरु होने से पहले ही वहां के मठाधीश अपने करीबियों को लेकर आते हैं फिर उनके करीबी अपने चाहने वालों को काम दिलाते हैं. अगर आपको कोई नहीं जानता तो आपका सीवी कूड़ेदान में फेंक दिया जाएगा, ये हाल सिर्फ नए चैनलों का हीं नहीं है बल्कि अखबारों का भी है ।जब मीडिया हाउसों का ये हाल हैं तो पुराने प्रतिष्ठित और बड़े संस्थानो का खयाल तो सपने मे भी नहीं आता और अगर इस तरह से भर्तियाँ होंगी, फिर कहां से रवीश और जिनका जिक्र मैने उपर किया हैं वैसे पत्रकार सामने आएंगे.
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि टैलेंट की कद्र ना के बराबर हैं । संस्थान शुरु होने से पहले ही मालिकों से मिलकर उसे चलाने का ठेका ले लिया जाता हैं और फिर अपने करीबियों को मनमानी रकम पर नौकरी देकर खुद भी 1-2 साल या उससे भी कम समय मे पैसे बनाकर निकल लेते हैं उनके बाद जो नया बॉस आता हैं वह पुराने कामचोर और चापलुसों के साथ-साथ कुछ मेहनती इमानदार लोगों को भी संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं । मुझे याद है कैसे हमारे ऑफिस मे एक अनुभवी और मेहनती सीनियर परेशान होकर बोले थे कि अब तो कहीं और नौकरी भी नहीं मिलने वाली और यहां नौकरी बचाना मुश्किल है वो सिर्फ इसलिए परेशान थे क्योंकी हमारे बॉस बदल गए थे, सीनियर लोगों को जूनियर से ज्यादा हताशा और निराशा हैं । अगर कोई व्यक्ति आज 10-15 साल किसी और क्षेत्र मे काम कर ले तो अच्छा पैसा अच्छा मुकाम हासिल कर ही लेगा अगर उसमे काबिलीयत होगी, लेकिन यहां तो उम्र के आखिरी पड़ाव तक लोगों मे नौकरी के प्रति असुरक्षा की भावना बनी रहती है। कुछ हद तक नए पत्रकारों को सोशल मीडिया ने सहारा दिया हैं जिसकी वजह से उनको अपने प्रोफेशन मे नौकरी मिल रही है. लेकिन उससे हालत में कोई खास बदलाव नहीं आया है. क्या भारतीय मीडिया कि यह तस्वीर कभी बदलेगी?
(लेखक : लखनऊ लोकमत में युवा पत्रकार हैं)

प्रेम का पर्व या संस्कारों का अवमूल्यन ????

Wednesday 15 February 2012



आइये जरा मिलकर विचार करें / सोचें.
पंडित दयानन्द शास्त्री-  
किसी भी समाज अथवा संस्कृति में प्रेम के सभी रूप देखने को मिळते है .
प्रेम ही क्यो , मानवीय भावनाये अपने सभी रूपो में पायी जाती है. भारतीय संस्कृति में अगर निष्काम प्रेम के उदाहरण है ,तो सकाम प्रेम ,घ्रीणा, ईर्ष्या ,लोभ,विश्वासघात इत्यादि के उदाहरण भी काम नही. प्रेम अपने सभी रूपो में अच्छा ही है , न कि केवळ निष्काम रूप
में ही . सभी संतो ने ,चाहे वो किसी भी धर्म या संस्कृति से हो ,प्रेम की
महत्ता को बताया है और प्रेम करने की सलाह भी दी है. आपके ,हमारे माता -
पिता का प्रेम भी निष्काम तो नही ही रहा है . 'नर और मादा' मनुष्य का प्रेम भी
ईश्वर का अद्भुत वरदान ही है. वैलेइन्ताइन का प्रेम केवळ सकाम ही नही है .
संस्कृति जन्य धारनाये एवं वर्जनाये उसके स्वरूप को समाज स्वीकृत रूप तक
सीमित रखती है ,जो अलग अलग समाज में अलग अलग हो सकती है.

सांस्कृतिक प्रदूषण तो फ़ैलाया ही जा रहा है।सांस्कृतिक प्रदुषण है इस तरह के त्यौहार... वैसे भी वेलेंटाइन ने व्यभिचार से अपने देश को बचने के लिए विवाह करने पर जोर दिया था... लेकिन उसी वेलेंटाइन के नाम पर आज विश्व व्यभिचार कर रहे हैं...काम प्रेम का एक अंग हो सकता है मगर ये पाश्चात्य संस्कृति की आड़ में काम को प्रेम का पर्याय बनाने पर आमादा है ..यहाँ प्रेम की शुरुवात और अंत आत्मा से न होकर जिस्म की गोलाइयों तक सिमित हो गया जो कम से कम भारतीय परिवेश में वर्जित है...

वर्तमान महानगरीय परिवेश में पश्चिम का अन्धानुकरण करने की जो यात्रा शुरू हुई है उसका एक पड़ाव फ़रवरी महीने की १४ तारीख है,हालाँकि प्रेम की अभिव्यक्ति किसी भी प्रकार की हो सकती हैI माँ-बाप,बेटा,भाई,बहन किसी के लिए मगर ये त्यौहार वर्तमान परिवेश में प्रेमी प्रेमिकाओं के त्यौहार के रूप में स्थापित किया गया हैI आज कल के युवा या यूँ कह ले आज कल कूल ड्यूड्स बड़े जोर शोर से इस त्यौहार को मना कर आजादी के बाद भी, अपनी बौधिक और मानसिक गुलामी का परिचय देते मिल जायेंगे Iपिछले १५-२० वर्षों में इस त्यौहार ने भारतीय परिवेश में अपनी जड़े जमाना प्रारम्भ किया और अब इस त्यौहार के विष बेल की आड़ में हमारी युवा पीढ़ी में बचे खुचे हुए भारतीय संस्कारो का अवमूल्यन किया जा रहा हैI इस त्यौहार के सम्बन्ध में कई किवदंतियां प्रचलित है में उनका जिक्र करके उनका विरोध या महिमामंडन कुछ भी नहीं करना चाहूँगा क्यूकी भारतीय परिवेश में ये पूर्णतः निरर्थक विषय हैI

मेरे मन में एक बड़ा सामान्य सा प्रश्न उठता है की प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए हम एक खास दिन ही क्यों चुने??जहाँ तक प्रेम के प्रदर्शन की बात है हमारे धर्म में प्रेम की अभिव्यक्ति और समर्पण की पराकाष्ठा है मीरा और राधा का कृष्ण के प्रति प्रेम I मगर महिमामंडन वैलेंटाइन डे का?कई बुद्धिजीवी(या यूँ कह ले अंग्रेजों के बौधिक गुलाम) अक्सर ये कुतर्क करते दिखते हैं की इसे आप प्रेमी प्रेमिका के त्यौहार तक सीमित न करे, मेरी बेटी मुझे वैलेंटाइन की शुभकामनायें देती है,और पश्चिम में फादर डे,मदर डे भी मनाया जाता है I

मेरा ऐसे बौधिक गुलाम लोगो से प्रश्न है की,अगर पश्चिम में मानसिक और बौधिक रूप से इतना प्रेम भरा पड़ा है की, वहां से प्रेम का त्यौहार, हमे उस धरती पर आयात करना पड़ रहा है जहाँ निष्काम प्रेम में सर्वस्व समर्पण की प्रतिमूर्ति मीराबाई पैदा हुई, तो पश्चिम में ओल्ड एज होम सबसे ज्यादा क्यों हैं?? क्यों पश्चिम का निष्कपट प्रेम वहां होने वाले विवाह के रिश्तों को कुछ सालो से ज्यादा आगे नहीं चला पाता.उस प्रेम की मर्यादा और शक्ति तब कहा होती है ,जब तक बच्चा अपना होश संभालता है ,तब तक उसके माता पिता कई बार बदल चुके होते हैं और जवानी से पहले ही वो प्रेम से परे एकाकी जीवन व्यतीत करता है इ
ये कुछ विचारणीय प्रश्न है उन लोगो के लिए जो पाश्चात्य सभ्यता की गुलामी में अपनी सर्वोच्चता का अनुभव करते हैं I
ये कैसी प्रेम की अनुभूति है जब पिता पुत्र से कहता है की तुम्हारा कार्ड मिला थैंक्यू सो मच..और फिर वो एक दूसरे से सालो तक मिलने की जरुरत नहीं समझते I ये कौन से प्रेम की अभिव्यक्ति है जब प्रेमी प्रेमिका विवाह के समय अपने तलाक की तारीख भी निश्चित कर लेते हैं,और यही विचारधारा हम वैलेंटाइन डे:फादर डे मदर डे के रूप में आयात करके अपने कर्णधारो को दे रहे हैंI
मैं किसी धर्म या स्थान विशेष की मान्यताओं के खिलाफ नहीं कह रहा मगर मान्यताएं वही होती है जो सामाजिक परिवेश में संयोज्य हो I आप इस वैलेंटाइन वाले प्रेम की अभिव्यक्ति सायंकाल किसी भी महानगर के पार्क में एकांत की जगहों पर देख सकते हैंI

क्या ये वासनामुक्त निश्चल प्रेम की अभिव्यक्ति है?? या ये वासना की अभिव्यक्ति हमारे परिवेश में संयोज्य है? शायद नहीं,तो इस त्यौहार का इतना महिमामंडन क्यों?? मेरे विचार से भारतीय परिवेश में प्रेम की प्रथम सीढ़ी वासना को बनाने में इस त्यौहार का भी एक योगदान होता जा रहा है I आंकड़े बताते हैं की वैलेंटाइन डे के दिन परिवार नियोजन के साधनों की बिक्री बढ़ जाती हैI क्या इसी वीभत्स कामुक नग्न प्रदर्शन को आप वैलेंटाइन मनाने वाले बुद्धिजीवी प्रेम कहते हैं?
इस अभिव्यक्ति में बाजारीकरण का भी बहुत हद तक योगदान है कुछ वर्षो तक १-२ दिन पहले शुरू होने वाली भेडचाल वैलेंटाइन वीक से होते हुए वैलेंटाइन मंथ तक पहुच गयी है. मतलब साफ़ है इस नग्न नाच के नाम पर उल जलूल उत्पादों को भारतीय बाज़ार में भेजनाIटेड्डी बियर, ग्रीटिंग कार्ड से होते हुए,भारत में वैलेंटाइन का पवित्र प्यार कहाँ तक पहुच गया है नीचे एक विज्ञापन से आप समझ सकते हैं??

वस्तुतः ये वैलेंटाइन डे प्रेम की अभिव्यक्ति का दिन न होकर हमारे परिवेश में बाजारीकरण और अतृप्त लैंगिक इच्छाओं की पाशविक पूर्ति का एक त्यौहार बन गया है,जिसे महिमामंडित करके गांवों के स्वाभिमानी भारत को पश्चिम के गुलामो का इंडिया बनाने का कुत्षित प्रयास चल रहा हैIउमीद है की युवा पीढ़ी वैलेंटाइन डे के इतिहास में उलझने की बजाय गुलाम भारत के आजाद भारतीय विवेकानंद के इतिहास को देखेगी,जिन्होंने पश्चिम के आधिपत्य के दिनों में भी अपनी संस्कृति और धर्म का ध्वजारोहण शिकागो में किया..

किसी भी धर्म अथवा संस्कृति के लिये विरोध , विष वमन, नीचा दिखाना
हमारी संकुचित विचारधारा अथवा निहित स्वार्थ का पारिचायक तो हो सकता है
परंतु हमारी संस्कृति का हिस्सा नही . नयी पीढी के लिये अच्छे उदाहरणो की
जरूरत है..आगे बढ़ने के चक्कर में बाजार के हाथों का खिलौना बन रहे हैं हम लोग।

वेसे भी हमारी पुरातन संस्कृति में ( वेद,पुराण एवं अन्य धार्मिक ग्रंथो में इससे बेहतर "वसंत उत्सव/मदनोत्सव का वर्णन किया गया हें...ये पश्चिम वाले क्या करेंगे हमारा मुकाबला..और तो और इस बात की शिक्षा देने के लिए हमारे धार्मिक स्थलों( मंदिरों) पर भी इस बात को दर्शाया गया हें?? नहीं क्या..??
""शुभम भवतु""कल्याण हो...


कॅरियर के प्रति यूथ कन्फ्यूज्ड

Monday 13 February 2012

धीरेन्द्र अस्थाना 

यार मैं तो बारहवीं में बायो का स्टूडेंट था, लेकिन आज कॉमर्स का लेक्चर ले रहा हूं और मैं तो इंजीनियरिंग करने की सोच रहा था, लेकिन घरवाले चाहते थे कि डॉक्टर बनूं इसलिए मेडिकल में आ गया। अक्सर कई बार आपने कॉलेज गोइंग स्टूडेंट्स को ऎसी बातें करते सुना होगा।

वर्तमान में स्टूडेंट्स कॅरियर को लेकर काफी कन्फ्यूज्ड हैं, और होंगे भी क्यों नहीं कॅरियर को लेकर बढ़ती प्रतिस्पर्घाओं के चलते स्टूडेंट्स इतने प्रेशर में जो हैं। मम्मी चाहती हैं बेटा डॉक्टर बने और पापा कहते हैं मेरा बेटा तो इंजीनियर बनेगा, लेकिन कोई एक बार भी ये नहीं पूछता कि वह क्या बनना चाहता है? इसके चक्कर में अक्सर स्टूडेंट्स अपने कॅरियर को दांव पर लगाकर घरवालों की पसंद को अपनी पसंद बना लेते हैं।

मार्क्स के आधार पर चुनाव
ज्यादातर स्टूडेंट्स और पेरेंट्स 10 वीं के मार्क्स के आधार पर सब्जेक्ट का चुनाव करते हैं। साइंस में ज्यादा नंबर आए तो बायो या मैथ्स में अधिक नंबर आए तो मैथ्स। लेकिन नंबर के आधार पर सब्जेक्ट का चुनाव न करके स्टूडेंट्स की रूचि, एप्टीटयूट टेस्ट, सब्जेक्ट पर पकड़ और उस सब्जेक्ट में पिछले 3 साल की परफॉर्मेस को ध्यान में रखकर ही आगे सब्जेक्ट चुनाव किया जाना चाहिए।

समझें बच्चों की रूचि
सब्जेक्ट के चुनाव में पेरेंट्स की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है, इसलिए पेरेंट्स को अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन ठीक ठंग से करना चाहिए। पेरेंट्स बच्चों की रूचि को देखते हुए अपनी सहमति प्रदान करें। उन्हें ऎसे सब्जेक्ट का चुनाव न करने दें जिससे उसकी मूल प्रतिभा पर कोई असर पड़े।

इन बातों पर ध्यान दें
दसवीं के बाद सब्जेक्ट के चुनाव में कई महत्वपूर्ण बातों को ध्यान रखना चाहिए। सब्जेक्ट का चुनाव करते समय एकेडमिक अचीवमेंट के साथ किसी विषय में अपनी पकड़ और क्षमता, रूचि तथा पर्सनेलिटी को मुख्य रूप से ध्यान रखना चाहिए।

दबाव घातक
सब्जेक्ट चुनाव में पेरेंट्स का दबाव काफी घातक हो सकता है। पेरेंट्स के कारण स्टूडेंट्स अपनी मूल प्रतिभा का बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाता। इसके चलते स्टूडेंट्स अपने कॅरियर के लिए सही रास्ते का चुनाव नहीं कर पाते, जिसके कारण कॅरियर में कई परेशानियां आती हैं। बच्चों के सब्जेक्ट के चुनाव के लिए उनकी रूचि के साथ मनोवैज्ञानिक परीक्षण का सहारा लेना चाहिए, इससे बच्चे की रूचि और उस सब्जेक्ट में उसकी वास्तविक पकड़ के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
- वर्षा वरवंडकर, करियर काउंसलर

कॉलेज में सब्जेक्ट बदलने या किसी दूसरे सब्जेक्ट से ग्रेजुएशन करने का सबसे बड़ा कारण सब्जेक्ट से रिलेटिड कठिनाई होती है। जैसे कि मुझे मैथ्स सब्जेक्ट तो पसंद है लेकिन मैं फीजिक्स में कमजोर हूं, जिसके चलते मुझे कॉलेज में परेशानी हो सकती है।
- राधेश्याम प्रजापति, स्टूडेंट

कॉलेज में सब्जेक्ट चेंज करना स्टूडेंट्स की वीकनेस पर डिपेंड करता है, क्योंकि स्टूडेंट्स बारहवीं में तो अपनी पसंद का सब्जेक्ट चुन लेता है, लेकिन कॉलेज में आकर ये काफी टफ हो जाता है, जिसके चलते स्टूडेंट्स सब्जेक्ट चेंज कर लेता है।
- सृजन चंद्राकर, स्टूडेंट

लेखक लखनऊ से प्रकाशित हो रहे दैनिक लोकमत में संवाददाता 

सावधान लड़कियों! कोई देख तो नहीं रहा...

धीरेन्द्र अस्थाना 
यदि आप बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों व दुकानों में खरीददारी के लिए जा रहे हैं तो सावधान हो जाईएं। कपड़े बदलते समय खुफिया कैमरों से आपकी विडियो फिल्म बनाई जा रही है। आपकी थोड़ी सी भी सावधानी आपकों आनेवाले बड़ी मुसीबतों से बचा सकती है। शॉपिंग मॉल में खुफिया कैमरे लगे होते हैं जो कि कपड़े बदलते समय लड़कियों की विडियो फिल्म बना लेता हैं और उसे बड़ी कीमतों में बेच देते हैं। पुलिस कई मॉलों में छापेमारी कर कैमरे को जब्त कर चुकी है। जिससे कई दुकाने बंद हो चुकी हैं। आज का टेक्नॉलॉजी इतना मॉडर्न हो गया है कि एक छोटे से गैजेट के साथ आप बड़ा से बडा कारनामा कर सकते हंै। अब एक ऐसा छोटा कैमरा बाजार में आ गया है जो बिजली की सॉकेट के अंदर फिट होता है। जब कोई लड़की कपड़े चेंज करने के लिए जाती है तो खुफिया कैमरा विडियो फिल्म बना लेता है। इस बात का ख्याल रखें की जब भी आप खरीददारी के लिए शॉपिंग मॉल या अन्य बड़े दुकानों में जाएं तो कपड़ें चेंज न करें। घर पर ही कपड़े बदले तो ज्यादा अच्छा होगा।

लव-मंत्र : आया मौसम प्यार का

Saturday 11 February 2012

धीरेन्द्र अस्थाना 
आया मौसम प्यार का...' जी हां दोस्तों प्यार भरा मौसम आ चुका है। जहां हर तरफ सब कुछ नया-नया है,  मन में नई उमंगे, दिल में नए जज्बे, विचारों में नयापन, पेड़ों पर नई कोपलें यह सभी मानो नई ऋतु का स्वागत कर रहीं हों। वसंत ऋतु को तो शास्त्रों में भी प्यार का मौसम कहा गया है। हवाओं में हल्का सा सर्दपन लिए हुए यह मौसम अपने आप ही हमारे मन में एक अलग सी अनुभूति भर देता है।

इस मौसम में हमारा मन प्यार में खो जाने का, अपनी अलग रंगीन दुनिया बसाने का और प्यार में ही मर मिट जाने को लालायित होने लगता है। कोयल की मधुर आवाज, फूलों की महक, हर तरफ छाया प्यार का खुमार यकायक ही हमें हमारे प्रिय की याद दिलाने लगता है और अगर हमारे जीवन में अब तक कोई खास नहीं है तो उस खास के मिलने की आस जगाने लगता है।

हर साल इसी मौसम में सबसे ज्यादा प्रेमी युगल अपने रिश्तों को नया आयाम देते हुए शादी के खूबसूरत बंधन में बंध जाते हैं और ऐसा होना भी लाजमी है क्योंकि इस मौसम की हवाओं में भी प्यार ही बसता है तो फिर लोगों के दिलों में प्यार ही प्यार होना स्वाभाविक सी बात है। पूरे विश्व में मनाया जाने वाला प्यार का त्योहार वेलेंटाइन डे भी इसी मौसम में आता है।

एक-दूसरे की बांहो में बांहों डाले हुए अपनी ही दुनिया में मशगूल प्रेमी जोड़ों को देखना अपने आप में एक सुखद अनुभुति है। इन्हें देखकर यूं लगता है मानो समाज में बुराई, नफरत, जलन, ईर्ष्या इन जैसी चीजों के लिए तो कोई जगह ही नहीं बची है बस सब के ऊपर प्यार की खुमारी छाई हुई है, लेकिन यह सब सिर्फ हमारी सोच तक ही सीमित रह जाता है असल जिंदगी में तो इसका ठीक उल्टा ही होता दिखाई देता है।

अक्सर युवा इसी प्यार की खुमारी में अपनी हदें पार कर बैठते हैं। कई अपनी हवस को प्यार समझ लेते हैं और गुनाह के दलदल में कदम रखने से भी खुद को रोक नहीं पाते। वे भूल जाते हैं कि प्यार कोई खेल नहीं है जिसमें कोई हार-जीत हो। प्यार तो महज एक अहसास है जो कब, कहां, किसके लिए जाग जाए यह पता ही नहीं चलता। इस अहसास में सब-कुछ अच्छा लगने लगता है, सारी दुनिया रंगीन नजर आने लगती है। हमें तो बस प्यार का नशा होने लगता है।

प्यार में होना या प्यार करना कोई गुनाह नहीं है बस प्यार के जोश में अपने होश खो देना गलत है। आज युवाओं को जरुरत है इस मूलमंत्र को अपने दिल-ओ-दिमाग में बैठा लेने क‍ी ताकि वे इस हसीन अहसास का पूरा लुत्फ उठा सकें और प्यार को बदनाम होने से बचा सकें।

तो दोस्तों बस इस बात को ध्यान में रखकर आप भी प्यार भरे इस मौसम में अपनी भावनाओं को बहने दीजिए, अपने दिल में प्यार को घर करने दीजिए और अपने प्यार के साथ भरपूर आनंद लीजिए इस खास मौसम का जो सिर्फ आपके और आपके प्यार के लिए है।

क्या लग सकेगी निजी स्कूलों की लूट पर लगाम?

Tuesday 7 February 2012


धीरेंद्र अस्थाना 
निजी स्कूलों पर जो सबसे बड़े आरोप लगते रहे हैं, वो है दाखिले और फीस के नाम पर मोटी कमाई करना.लखनऊ के अभिभावक यह बात तो खुले तौर पर कहते सुने जा सकते हैं कि ये स्कूल वाले लूट रहे हैं, पर खुल कर विरोध करने से ये बचते रहे हैं. बात साफ़ है, इनके बच्चों का भविष्य भी इन्ही स्कूलों की पढाई पर टिका हुआ है, और लखनऊ जैसे शहर में विकल्पों की भी भारी कमी है. स्कूल की व्यवस्था में खर्च के बाद भी बड़ी राशि इनकी बचत होती है. स्कूलों में फीस का यहाँ कोई मापदंड नहीं है, जिसे जो मन हुआ थोप दिया. सरकार द्वारा इन स्कूलों के निबंधन के बाद ये सम्भावना तय लगती है कि इन्हें फीस में भी एकरूपता रखनी होगी.
सरकारी आंकड़े कहते हैं कि लखनऊ के प्रति व्यक्ति आय ३३४६ रू० है, जबकि राज्य का- ५००७ रू० और देश का १७८३३ रू० है. लखनऊ की ५१.८% आबादी गरीबी रेखा से नीचे की जिंदगी बसर कर रही है और निम्न जीवन जीने वालों की संख्यां ८२.६% है. इन आंकड़ों से इन स्कूल वालों को कोई लेना देना नहीं है. इनकी बातों से तोयहाँ तक लगता है कि इन्हें शायद ये आंकड़े पता भी नहीं है. डाउनबास्को स्कूल की प्राचार्या चन्द्रिका यादव तो यहाँ तक कहती हैं कि लखनऊ  में कोई आर्थिक मंदी नहीं है.यहाँ फीस अच्छी होनी चाहिए. कमोबेश यहाँ सभी निजी स्कूल प्रशासन की सोच ऐसी ही है. इनकी बातों पर यदि भरोसा करें तो सरकारी आंकड़े प्रस्तुत कर सरकार ने राजधानी के लोगों के साथ मजाक किया है.शायद यही कारण है कि यहाँ के स्कूल में छात्रों से विभिन्न तरीकों से कड़ी फीस वसूल कर ली जाती है.
  बाल संरक्षण आयोग की अध्यक्ष का कहना है कि प्रदेश में कई ऐसे स्कूल हैं जिनका एफलियेशन नहीं है, और ये बच्चों का दाखिला ले लेते हैं.बाद में पता चलता है कि बच्चों को दाखिले के लिए दूसरे स्कूल भेजा जा रहा है.दाखिले के नाम पर मोटी कमाई करने वाले इन स्कूलों के विरोध में अभिभावकों को आगे आना चाहिए.

लेखक लखनऊ से प्रकाशित हो रहे दैनिक लोकमत में संवाददाता है 

युवाओ को रिझाने के लिए दलों का लालीपाप

Saturday 4 February 2012


-धीरेंद्र अस्थाना
देश की संसद में बड़ी-बड़ी बातें करने वाली राजनीतिक पार्टियां प्रायोगिक तौर पर अपनी ही बातों से मुकर जाती है। जिस की बानगी दिख रही है यूपी चुनावों में। हम बात कर रहै हैं सपा मुखिया मुलायम सिंह की। उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के लिए समाजवादी पार्टी कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती है। कभी अंग्रेजी और कम्प्यूटर शिक्षा का विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी का नया चेहरा शुक्रवार को जारी घोषणा पत्र में देखने को मिला है। पार्टी ने 12वीं पास सभी छात्रों को लैपटाप उपलब्ध कराने का वादा किया है और दसवीं पास छात्रों को टेबलैट दिया जाएगा। घोषणा पत्र में अल्पसंख्यकों को मदरसों में तकनीकी शिक्षा के लिए सरकार विशेष बजट उपलब्ध करवाएगी। नेता जी के लिए तो बस हम यही कहना चाहेंगे ये जनता है जा सब जानती है। इसकी नजरों से बचना संभव नहीं है।
चुनाव का मौसम है और राजनीतिक दलों के नेता वायदे में जुटे हुए हैं। इसी की श्रृखंला में सपा मुखिया भी पिछले शुक्रवार को अपने चुनावी घोषणा पत्र में बोल पड़े कि इस बार प्रदेश में यदि उनकी सरकार बनती है तो प्रदेशवासियों को को क्या क्या तोहफे देेंगे। अब उन्होंने पिछली बार मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए प्रदेश के सभी वर्गों की छात्राओं को साइकिल बांटने की योजनाएं चलाई थी, जिस पर अमल तो किया गया, लेकिन उन्हें भी शायद ये नहीं पता होगा कि क्या पूरे प्रदेश की कन्याओं को साईकिल वितरण हो पाई थी। इसका जवाब तो शायद मुलायम के पास नहीं होगा, लेकिन अब बात है टेबलैट और लैपटाप की तो क्या मुलायम अपने वादे पर खरे साबित हो सकेंगे। बात तो ये भी है कि अब यदि मुलायम सिंह ने जनता से वादा तो कर दिया और अब इसे पूरा करने में क्या क्या जदोजहद करनी पड़ सकती हैं। वहीं प्रदेश के किसानों को सरकार की ओर से भूमि अधिग्रहण में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगें। 65 आयु वर्ष से ऊपर के किसानों को पेंशन मिलेगी, एक हजार रूपये बेरोजगारी भत्ता आदि कई ऐसे वादें किये है जिन पर अमल कर पाने के लिए क्या प्रदेश के पास इतना बजट होगा? क्या ये सारे वादे सिर्फ वादे ही रह जाएंगे? क्या बेरोजगारों को बिना किसी घोटालें के भत्ता मिल सकेंगा। तो सपा के मुखिया मुलायम ने आम जनमानस को ये लालीपाप तो दे दिया है अब देखना ये है कि यदि समाजवादी पार्टी की सत्ता बनती है तो इस पर कितना अमल हो सकेंगा।
वहीं उधर विधानसभा चुनाव के नजदीक आते ही सभी दलों ने वादों की झड़ी लगा दी है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ने बीते दिनों अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी करते हुए यह घोषणा की थी कि उत्तर प्रदेश में यदि उसकी सरकार बनी तो वह छात्रों के बीच लैपटाप व टैबलेट बांटेगी। इससे पहले समाजवादी पार्टी ने भी जनता से कुछ इसी तरह का वादा किया था। पार्टी ने अपने इस घोषण पत्र में छात्रों से लेकर महिलाओं और किसानों सहित समाज के हर वर्ग को लुभाने की कोशिश की है। पार्टी ने सरकार बनने की स्थिति में मध्य प्रदेश की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में लाडली लक्ष्मी योजना चलाने और बिहार की तर्ज पर स्कूली बालिकाओं को साइकिल बांटने की बात कही है। तो क्या ये वादे जनता से वोट लेने के लिए काफी होगे। या फिर किसानों को लुभाने के प्रयास के तहत पार्टी ने 1000 करोड़ रुपये का राहत कोष और उनके लिए कृषक कल्याण आयोग गठित करने का वादा किया है। साथ ही उन्हें 24 घंटे बिजली देने की बात भी कह दी है। पार्टी ने शिक्षकों के लिए भी आयोग गठित करने की बात कही है। पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में महिलाओं को रिझाने के प्रयास के तहत सरकारी नौकरियों में 33 फीसदी आरक्षण देने की बात भी कही है। साथ ही स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी सीटें आरक्षित करने का वादा तक किया है। लेकिन क्या ये वादे उस जनता के लिए मुकमल होगें जो ये सोचकर नेता चुनती है, और ऐसे में यदि आम जनमानस से जुड़े लोगों के वादांे पर पानी फिर जाता है तो शायद इसका कष्ट जनता को सबसे ज्यादा होता है। अपने जातिगत समीकरण को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण देने की केंद्र सरकार की घोषणा का विरोध किया है और कहा है कि इस सम्बंध में वह सरकार को संसद से सड़क तक विरोध करेगी। इस बयान पर भाजपा ने शायद ये नही सोचा कि अल्पसंख्यकों के लिए हम सड़को पर उतरकर विरोध तो करेंगे। लेकिन जारी घोषणा पत्र से जब जनता नाखुश होगी तो क्या अन्य विपक्षी दल शांत रहेंगे।
इन दोनो पार्टियो की स्थिति को देखते हुए ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने जनता से वोट लेने के लिए नये नये तरीके अपना रखे है उसी का नतीजा है कि दोनों ही पार्टियो ने अपने अपने वोटो को बचाने के लिए युवा मतदाताओं को अपनी ओर खिचा हैं। जिससे एक बात तो साफ है कि युवा मतदाताओं को रिझाने के लिए दोनो पार्टियों ने 12वीं पास सभी छात्रों को लैपटाप उपलब्ध कराने का वादा किया है और दसवीं पास छात्रों को टेबलैट दिया जाएगा। मतदाताओं को रिझाने के बाद अब इस बात की क्या गारंटी है कि ये दोनों बड़ी पार्टियां जनता के साथ किये गये वादो को पूरा कर सकेंगी।
धीरेंद्र अस्थाना
धीरेंद्र अस्थाना संवाददाता लोकमत लखनऊ 9415001924
इन दोनों भाजपा के प्रमुख नेता सुषमा स्वराज, कलराज मिश्र, लालजी टंडन, राजनाथ सिंह, मुख्तार अब्बास नकवी, शहनवाज हुसैन, सूर्य प्रताप शाही, नरेंद्र मोदी, अटल बिहारी वाजपेई आदि है और सपा में भी मुखिया मुलायम सिंह यादव, राम गोपाल यादव, अखिलेश यादव, शिवपाल सिंह, आजम खान, मोहन सिह, बृज भूषण तिवारी आदि कई लोग है जो इन दिनों पांचो प्रदेशों की विधानसभा सीटों में जाकर चुनावी सभा को संबोधित कर रहे हैं और जनता को सपने दिखा रहे हैं। इन चुनावी घोषणा पत्रों में सपा ने तो दसवीं पास छात्रांे को लैपटाप का लालीपाप दिया तो वहीं भाजपा ने बेहद रियायती दर पर छात्रों को लैपटाप देने के साथ-साथ युवाओं के सर्वांगीण विकास के युवा आयोग गठित करने की बात कहीं और हद तो तब हो गई जब क्रेडिट कार्ड की तर्ज पर बेरोजगार युवाओं को बात कह डाली। अभी आम जनमानस का इन दोनों बड़ी पार्टी के लालीपाप से मन भरा भी नही था और ऐसे में कांग्रेस ने युवाओं को कोई उपहार देने के बजाय पांच सालों में बीस लाख युवाओं को रोजगार देने का वादा कर डाला। युवा छात्र मतदाताओं को रिझाने के लिए कांग्रेस ने छात्र संघों के चुनाव करवाने का वायदा भी किया है। तो कुल मिलाकर यदि इस बार के चुनाव पर नजर डाली जाए तो ये साफ है कि इस बार का बड़ा वोट बैंक युवा है और इन्हें रिझाने के लिए दल किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार दिखाई दे रहे हैं।

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