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मीडिया की हालत क्या कभी सुधरेगी?

Saturday 25 February 2012


धीरेन्द्र अस्थाना 
तीन सालों मे पहली बार ऐसा लगा कि सबसे बेकार और सबसे घटिया फील्ड मीडिया है. करियर के लिहाज से क्या मैं सही हूं ? कैमरों की चकाचौंध और ग्लैमर के पीछे की सच्चाई अगर मीडिया में आने से पहले लोग जान जाए तो मेरा दावा हैं कि 95 फीसदी छात्र जो मीडिया इंडस्ट्री मे करियर बनाना चाहते हैं वह अपना इरादा बदल लेंगे. सिर्फ वही आएंगे जिनका कोई गॉडफादर पहले से इस क्षेत्र मे किसी बड़े ओहदे पर हैं ।
हलाकि संघर्ष हर क्षेत्र मे हैं लेकिन संघर्ष के बाद हर क्षेत्र मे एक मुकाम दिखता हैं. करियर बनता है. लेकिन यहां हालात बिलकुल अलग हैं. यहाँ हालत ये है कि 10-15 सालों से इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग भी नौकरी के चक्कर में न्यूज चैनलों और अखबारों के दफ्तरों के चक्कर लगाते नजर आते हैं. फिर अंदाजा लगाया जा सकता हैं कि नए लोगों का क्या हाल होता है ।
कहना गलत नहीं होगा कि मीडिया भ्रष्टाचार के मामलें मे आज संसद और नेताओं से भी दो कदम आगे हैं. हालांकि अभी भी कुछ लोग ईमानदार हैं और ईमानदारी मेहनत और टैलेंट की कद्र करते हैं जिसकी बदौलत हम जैसे अनाथों (जिनका मिडीया मे कोई गॉडफादर नही हैं ) को ब्रेक मिल जाता हैं । अगर कोई सर्वेक्षण कराया जाए तो पता चलेगा कि अन्य सेक्टर की अपेक्षा सबसे ज्यादा हताश और सबसे ज्यादा असुरक्षित अपनी नौकरी को लेकर मीडिया प्रोफेशनल हैं. हकीकत ये है कि बड़े चैनलों और अखबारों को छोड़ दें तो लगभग सभी मीडिया हाउस के कर्मचारियों मे बदलते माहौल के हिसाब से घनघोर निराशा और हताशा बढ़ते जा रही हैं ।
मीडिया को देश का चौथा स्तंभ माना जाता था. “था” इसलिए कि अब यह कोई स्तंभ नही रहा. ये एक आम आदमी भी जानता है. यहां सबको अपनी नौकरी प्यारी है. चाहे वह चैनल हेड हो या मामूली कर्मचारी. वही खबर चलेगी जो मैनेजमेंट चाहता है. इसलिए सरोकारी पत्रकारिता तो बहूत दूर की कौड़ी हो गई हैं ।
क्यों विनोद दुआ, रवीश कुमार, दीपक चौरसिया, आशुतोष, संदीप, अर्नव गोस्वामी या राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकारों की तरह आज के दौड़ के पत्रकार वो मुकाम हासिल नहीं कर पाए जो इन लोगों ने कर लिया. क्या हिन्दुस्तान मे टैलेंट की कमी हो गई हैं जो अब कुछ गिने-चुने पत्रकारों को छोड़कर कोई ऐसा चेहरा सामने नहीं आ रहा । टैलेंट की कमी आज भी नहीं हैं लेकिन नए टेलेंट को वो मौका नहीं मिल रहा जिसकी बदौलत वे अपनी चमक बिखेर सके.
आज नौकरी सिर्फ उनलोगों की सुरक्षित है जो चापलूसी मे माहिर हैं या फिर जो इंडस्ट्री मे किसी तरह बहुत दिनों से जमे हुए हैं. देश मे शिक्षा का व्यवसायीकरण शुरु होते ही मीडिया संस्थानों और कॉलेजों की बाढ़ आ गई. इस तरह से प्रचारित किया जा रहा हैं कि एडमिशन से पहले ही छात्र को लगने लगता हैं कि वह पत्रकार बन गया. लेकिन असल कहानी तो तब शुरु होती हैं जब उसको काम के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती है.
हिन्दुस्तान में हर साल लगभग 18 हजार छात्र पास आउट करते हैं जिनमे 20 फीसदी तो उसी साल अपना प्रोफेशन बदल देते हैं, क्योंकि अगर कोई माई-बाप हैं इस क्षेत्र मे तब तो नौकरी पक्की समझो या आपकी किस्मत सही हुई और कोई सज्जन मिल गया तो आपका कल्याण हो जाएगा. जैसा मेरा हुआ. वरना 2 सालों की पढाई और पैसा दोनो बेकार और किसी दूसरे फील्ड मे नौकरी करने को मजबूर होना पड़ता. मुझे बखूबी याद है, हमारे बैच के कई लोग नौकरी ना मिलने से अपना प्रोफेशन ही बदल दिया या फिर 1 साल तक इंटर्नशीप करने के बाद अब जाकर उन्हें ब्रेक मिला है. इसलिए मै अपने आपको खुशकिस्मत समझता हूं.
हकीकत यह हैं ब्रेक मिलने के बाद भी 95 फीसदी नौजवान पत्रकारों को आगे कोई भविष्य नजर नहीं आता. अपने से बड़े और अनुभवी लोगों की बेचैनी और असहजता देखकर कभी-कभी मै भी हताश हो जाता हूं और मेरे जैसे कितने लोग हैं जिनको ये लगता हैं कि मीडिया मे आने का उनका फैसला शायद उनकी जिंदगी का सबसे गलत फैसला हैं क्योंकी 5-6 साल तक इस प्रोफेशन मे काम करने के बाद आप मजबूर हो जाते हैं यहां रुकने को. प्रोफेशन बदल नहीं सकते जो बदल लेते हैं वो पहले से बेहतर महसूस करते हैं ।
नए और अनाथ लोगों के लिए बडे चैनलों और अखबारों मे नौकरी करना तो कभी ना सच होने वाला सपने जैसा है. इसलिए लोग वहां जाने का प्रयास भी नहीं करते. लेकिन उससे भी टेढ़ी खीर अब नए चैनल और अखबारों में नौकरी पाना हो गया है.
पिछले दो सालों मे जितने नए चैनल और अखबार आए हैं उनकी हालत ये हैं कि चैनल शुरु होने से पहले ही वहां के मठाधीश अपने करीबियों को लेकर आते हैं फिर उनके करीबी अपने चाहने वालों को काम दिलाते हैं. अगर आपको कोई नहीं जानता तो आपका सीवी कूड़ेदान में फेंक दिया जाएगा, ये हाल सिर्फ नए चैनलों का हीं नहीं है बल्कि अखबारों का भी है ।जब मीडिया हाउसों का ये हाल हैं तो पुराने प्रतिष्ठित और बड़े संस्थानो का खयाल तो सपने मे भी नहीं आता और अगर इस तरह से भर्तियाँ होंगी, फिर कहां से रवीश और जिनका जिक्र मैने उपर किया हैं वैसे पत्रकार सामने आएंगे.
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि टैलेंट की कद्र ना के बराबर हैं । संस्थान शुरु होने से पहले ही मालिकों से मिलकर उसे चलाने का ठेका ले लिया जाता हैं और फिर अपने करीबियों को मनमानी रकम पर नौकरी देकर खुद भी 1-2 साल या उससे भी कम समय मे पैसे बनाकर निकल लेते हैं उनके बाद जो नया बॉस आता हैं वह पुराने कामचोर और चापलुसों के साथ-साथ कुछ मेहनती इमानदार लोगों को भी संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं । मुझे याद है कैसे हमारे ऑफिस मे एक अनुभवी और मेहनती सीनियर परेशान होकर बोले थे कि अब तो कहीं और नौकरी भी नहीं मिलने वाली और यहां नौकरी बचाना मुश्किल है वो सिर्फ इसलिए परेशान थे क्योंकी हमारे बॉस बदल गए थे, सीनियर लोगों को जूनियर से ज्यादा हताशा और निराशा हैं । अगर कोई व्यक्ति आज 10-15 साल किसी और क्षेत्र मे काम कर ले तो अच्छा पैसा अच्छा मुकाम हासिल कर ही लेगा अगर उसमे काबिलीयत होगी, लेकिन यहां तो उम्र के आखिरी पड़ाव तक लोगों मे नौकरी के प्रति असुरक्षा की भावना बनी रहती है। कुछ हद तक नए पत्रकारों को सोशल मीडिया ने सहारा दिया हैं जिसकी वजह से उनको अपने प्रोफेशन मे नौकरी मिल रही है. लेकिन उससे हालत में कोई खास बदलाव नहीं आया है. क्या भारतीय मीडिया कि यह तस्वीर कभी बदलेगी?
(लेखक : लखनऊ लोकमत में युवा पत्रकार हैं)

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