एक फूल दो माली वाली बात तो हम सभी लोगों ने सुनी है पर एक कमरे में चार आईपीएस अफसर वाली बात कभी-कभार ही सुनने को मिलती है. मैंने यह बात आज उस समय सुनी जब मेरे पति अमिताभ अपने नए दफ्तर में ज्वायन करने के बाद शाम को घर आये. स्वाभाविक उत्सुकतावश मैंने जब उनसे दफ्तर का हाल पूछा तो मालूम चला कि रूल्स और मैनुअल के इस नए दफ्तर में, जहां उनका तबादला ईओडब्ल्यू मेरठ से हुआ है, कुल दो कमरे हैं और कुल पांच आईपीस अधिकारियों की वहाँ तैनाती है. इनमे एक डीजी, दो डीआईजी और दो एसपी हैं. इनमे एक कमरा तो डीजी साहब के लिए है और बाकी चार आईपीएस अधिकारी एक छोटे से कमरे में बैठेंगे. इस तरह एक कमरे में चार वरिष्ठ आईपीएस अफसर इकठ्ठा बैठ कर क्या काम करेंगे, यह बात आसानी से समझी जा सकती है.
मैंने एक आईपीएस अफसर की पत्नी के रूप में इस दफ्तर से जुडी उन बुनियादी सुविधाओं के बारे में पूछा जिससे हर अफसर की पत्नी को सीधे मतलब होता है. मालूम हुआ कि इस पद पर उन्हें घर के कामकाज के लिए कोई कर्मचारी नहीं मिलेंगे क्योंकि वहाँ इस कार्य के लिए कोई कर्मचारी बचे ही नहीं हैं. जितने अधिकारी पहले से हैं उन्हें ही घर के लिए कर्मचारी नहीं मिले हैं, अब नए आने वाले अधिकारी को क्या मिलेगा. यह भी तब जब उत्तर प्रदेश में प्रत्येक आईपीएस अफसर को गृह कार्यों में मदद के लिए दो कर्मचारी मिलने का नियम है, जिन्हें सरकारी भाषा में फॉलोअर (या अनुचर) कहते हैं.
मैं नहीं कह रही कि यह बहुत अच्छी व्यवस्था है. मैं इसकी कोई बहुत बड़ी समर्थक नहीं हूँ और पिछले लगभग तीन सालों से, जब से अमिताभ आईआईएम लखनऊ गए थे, हम लोग वैसे भी बिना फॉलोअर के ही आराम से रह रहे हैं और मेरे घर के सारे काम-काज आराम से हो रहे हैं. यहाँ तक कि अमिताभ के मेरठ में ईओडब्ल्यू की तैनाती के दौरान भी हमारे पास फॉलोअर नहीं थे. तकलीफ तो बस इस बात की होती है कि जहां इसी विभाग में एक-एक अफसर तो आठ-आठ, दस-दस फॉलोअर इसीलिए रखे हुए हैं क्योंकि वे सरकार के महत्वपूर्ण लोगों को खुश कर के ताकतवर कुर्सियों पर बैठे हुए हैं लेकिन चूँकि मेरे पति ने इससे अलग अपना रास्ता तय करने की सोच ली है इसीलिए वरिष्ठ अधिकारी होने के बावजूद हमें बुनियादी सहूलियतें भी जानबूझ कर नहीं दी जा रही हैं.
तो जो हाल मेरठ में था, वही लखनऊ में भी रहेगा. लेकिन इसका मतलब यह नहीं हुआ कि फॉलोअर नहीं होने के कारण मित्रों को घर पर खाना नहीं खिलाउंगी. सभी मित्रों का हमेशा घर पर स्वागत है और उनकी मर्जी के अनुसार खाना भी स्वयं बना कर खिलाने में पीछे नहीं हटूंगी. मैं तो यह बात मात्र हक की लड़ाई और सरकारों द्वारा की जाने वाली बेईमानी के उदाहरण के तौर पर कर रही हूँ. मेरठ से लखनऊ में रूल्स और मैनुअल में अचानक ट्रांसफर भी तो इसी कारण से हुआ था. ईओडब्ल्यू विभाग के कुछ चोटी के बड़े अधिकारियों द्वारा की जा रही बेईमानियों का विरोध मेरे पति ने किया और इस के कारण अचानक मिड-सेशन में उनका ट्रांसफर कर दिया गया था.
दूसरी बात मैंने गाडी की पूछी तो यहाँ भी बात वही पायी. विभाग में गाडी नहीं है और इसीलिए अमिताभ अपनी ही गाडी से दफ्तर आया-जाया करेंगे. यदि सच पूछा जाए तो इसमें भी कोई बुराई नहीं है क्योंकि करोड़ों लोग तो इसी तरह से निजी अथवा सार्वजनिक वाहनों से दफ्तर आते-जाते हैं. कष्ट बस इसी कारण से होता है क्योंकि यह सब कुछ जान-बूझ कर एक अधिकारी को परेशान करने के लिए किया जाता है, क्योंकि वह व्यवस्था की गुलामी नहीं कर रहा. जब गाडी नहीं, फॉलोअर नहीं, तो सरकारी फोन आदि कहाँ से होंगे.
लेकिन इससे कई गुणा ज्यादातर गंभीर बात यह है कि यह विभाग तो बना दिया गया है, पांच-पांच आईपीएस अफसर भी तैनात कर दिये गए हैं पर काम कुछ नहीं है. आगे शायद यही होने वाला है कि दफ्तर गए, दिन भर दफ्तर की हवा खायी और शाम होने पर घर लौट आये. ऐसा इसीलिए कि जब काम ही कुछ नहीं है तो कोई करेगा ही क्या. शायद दफ्तर बनाया ही इसीलिए गया है कि यह “डम्पिंग ग्राउंड” का काम करे और सरकार या उसके ताकतवर नुमाइंदों को जिससे नाराजगी हो जाए, उसे यहाँ शीत घर में ठंडा होने और अपनी औकात जान लेने के लिए भेज दिया जाए.
पांच आईपीएस अधिकारियों के नीचे लगभग नहीं के बराबर स्टाफ है- एक स्टेनोग्राफर हैं जो सभी अधिकारियों के साथ लगे हैं. इस तरह उस विभाग में, जहां सिद्धान्ततया नियम बनाने का ही काम हो, इस काम में अफसरों की मदद करने के लिए किसी सहायक को नहीं लगाया गया है. कारण भी बहुत साफ़ है- आखिर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में पुलिस से सम्बंधित क़ानून और नियम बनवाना ही कौन चाहता है. ये अफसर तो बस इसीलिए यहाँ तैनात कर दिये गए हैं क्योंकि सरकार को एक डम्पिंग ग्राउंड चाहिए था. इस तरह कई लाख रुपये का सरकारी पैसा इन अधिकारियों पर खर्च तो हो रहा है पर इनसे कोई भी काम लेने की सरकार को कोई दरकार नहीं दिख रही. क्या ऐसी ही सोच से उत्तर प्रदेश और उसके विभाग का कोई भला हो सकना संभव है?
चूँकि आज के समय सरकारें और उनके अधिकारी अपने किसी काम के लिए उत्तरदायी नहीं हैं और उनकी जेब से कुछ नहीं जा रहा इसीलिए वे जो मनमानी चाहें करते रहें. अन्यथा यदि वास्तव में क़ानून का राज होता और ये अधिकारी भी अपने कुकर्मों के लिए जिम्मेदार बन पाते तो इस तरह की गैरजिम्मेदार कार्यवाही के लिए उनके जेब से इन अधिकारियों को दिये जा रहे पैसे की वसूली होनी चाहिए थी. अमिताभ यहाँ चले तो गए हैं पर चूँकि वे स्थिर और शांत रहने वाले प्राणियों में नहीं हैं, इसीलिए मैं यही सोच रही हूँ कहीं ऐसा ना हो कि कहीं वे ऐसे शांत पड़े महकमे को भी गरम ना कर दें जिससे उन्हें यहाँ से भी हटाने की नौबत आ जाए.
डॉ नूतन ठाकुर आरटीआई एक्टिविस्ट और स्वतंत्र पत्रकार के बतौर सक्रिय रहने के साथ-साथ सम-सामयिक और बेहद निजी व पारिवारिक मुद्दों पर भी खुलकर लिखती-बोलती रही हैं. नूतन का मानना है कि संविधान-कानून में उल्लखित अपने अधिकारों का हम लोग समुचित उपयोग करते रहें तो पूरे देश से ज्यादातर बुराइयां खत्म हो जाएंगी और फिर वाकई अपने देश का लोकतंत्र दुनिया का सबसे महान लोकतंत्र माना जाएगा. भड़ास ४ मीडिया से साभार