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गृहिणियों को भत्ता-औरत को बराबरी हासिल करने में बाधा ही बनेगा

Friday 1 June 2012

अंजलि सिन्हा

पहली बार किसी सरकारी स्कीम के तहत गृहिणियों को रु.1,000/- प्रतिमाह भत्ते की शुरूआत गोवा में हो गयी है। (टाइम्स आफ इण्डिया 13-5-12 ) वर्तमान सत्तासीन भाजपा ने चुनाव के दौरान अपने चुनावी घोषणापत्र में ऐलान किया था कि जीतने और सरकार में आने पर वह गृहिणियों को भत्ता देगी। यह भत्ता उन परिवारों को मिलेगा जिनकी आय प्रतिवर्ष 3 लाख रुपये से कम होगी। सरकारी सूचना में बताया गया है कि लगभग सव्वा लाख परिवार इसका लाभ उठाएंगे। महिला एवम् बालविकास अधिकारी ने मीडिया को बताया कि इस महंगाई के समय में गृहिणियों को घर सम्भालना मुश्किल हो रहा है। कुछ गृहिणियों से जब इस बारे में राय मांगी गयी तो कुछ ने कहा कि इससे हमें समाज में सम्म्मान मिलेगा, किसी ने कहा कि वह हमारा पैसा होगा, छोटी-मोटी चीजों के लिए पति से पैसा नहीं मांगना पडे़गा तथा यह भी राय आयी कि हम 24 घण्टे 7 दिन मेहनत करते हैं लेकिन हमें कभी कोई मेहनताना नहीं मिलता है, इससे हमें आजादी का एहसास होगा आदि।

सच बात है हाथ में पैसे आएंगे तो किसे बुरा लगेगा। लेकिन सोचना तो यह है कि वह औरत को अपनी गरिमा, आजादी, आत्मविश्वास कितना दिलायेगा और क्या वही उसका मेहनताना होगा। देखना होगा कि औरत दूरगामी रूप से घर और समाज में क्या लक्ष्य हासिल करना चाहती है। एक तरफ औरत की स्थिति का सवाल है , दूसरी तरफ इन राजनैतिक पाटियों का सवाल है जिन्हें चुनाव के समय लोगों के दुख, तकलीफ याद आते हैं फिर उनमें से कुछ वायदों को वे पूरा कर देते है। हमें यह नही भूलना चाहिए कि महिलायें भी एक वोट बैंक है, अब वे सिर्फ पति या परिवार के कहने पर वोट नहीं डालती बल्कि बाकायदा अपने मत के अधिकार का इस्तेमाल करती हैं। अगर महंगाई से राहत ही मकसद हो तो उसमें विशेषतः गृहिणियों का उल्लेख क्यों? जो भी परिवार गरीब है उन्हें महंगाई भत्ता मिलता! निश्चित ही इस स्कीम को महिलाओं के वोट बैंक को मजबूत करने के तौर पर देखा जा सकता है।

यूँ तो उपरोक्त घोषणापत्र में युवकों को भी बेरोजगारी भत्ता देने की बात की गयी थी। मगर इन दोनों भत्तों के फरक को आसानी से देखा जा सकता है। बेरोजगार युवक युवतियों को रोजगार मुहैया कराना सरकार की जिम्मेदारी होती है। सरकार को ऐसे इन्तजाम करने होते हैं, ऐसी नीतिया बनानी होती हैं जिसमें रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकें। शिक्षा की दिशा पर भी विचार करना होता है ताकि उसके जरिए कुशल एवं सक्षम व्यक्तियों का निर्माण हो सके। जब तक सरकार यह जिम्मेदारी पूरी नहीं करती और युवा को नौकरी नहीं मिलती है तब तक बीच के अवधि के लिए उसे बेरोजगारी भत्ता की व्यवस्था करनी होती है।

दूसरी तरफ, किसी महिला को गृहिणी बनाने के लिए सरकारी नीति की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है। यद्यपि महंगाई उन्हें प्रभावित करती है लेकिन वह तो वैसे हर इन्सान को प्रभावित करती है। हमारे समाज में महिलाओं की अच्छी खासी आबादी गृहिणी है यह वास्तविकता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इसमें सरकार की भलाई है। अगर ये सारी गृहिणियां रोजगार पाने का दावा करने लगें तो बेरोजगारों की फौज में और कितनी बढ़ोत्तरी हो जाएगी इसका सहज अन्दाजा लगाया जा सकता है और यह फौज सरकार के लिए मुसीबत खड़ा कर सकती है।

दरअसल महत्वपूर्ण यह है कि घर का काम और उसके महत्व को आंकना और उसका पारिश्रमिक तय करना आदि। पिछले तीस-चालीस साल से यह मुद्दा बना हुआ है जो किसी न किसी रूप में औरत की सामाजिक स्थिति से उभरता है। अर्थशास्त्रियों एवम् सरकारों ने जब कर्मचारी का वेतन तय किया तो कहा कि इसमें उसके परिवार के भरण-पोषण का आयाम ध्यान में रखा जाता है। फैमिली वेज की अवधारणा में यही था कि चूंकि कर्मचारी को मेहनत करने लायक बनाए रखने के लिए परिवार का योगदान महत्वपूर्ण है इसलिए मजदूर के वेतन में परिवार की आय भी अप्रत्यक्ष रूप से जुडी होनी चाहिए।

ये सारे विचार जनपक्षीय एवम् महिलाओं को मदद करने वाले लगते हैं लेकिन औरत यहां बराबर की कर्मचारी और प्रत्यक्ष आय अपने मेहनत के बदले हासिल करने वाली नहीं बनती है, वह बाहर जाकर कमाने वाले का पोषण करती है ताकि उसका भी गुजारा चलता रहे। दूसरी बात कि औरत के पारिश्रमिक की चर्चा कानून की निगाह में तब करनी पडती है जब वह किसी हादसे या दुर्घटना में मारी जाय और उसका मुआवजा उसके परिवार को मिलना हो। देश के कई न्यायालयों में ऐसे केस दायर हुए हैं जब कोर्ट को औरत के गृहकार्य की कीमत तय करनी पडी है। औरत के काम की महत्ता कई तरह से गिनायी जाती है। कहा जाता है कि औरत सिर्फ घर का काम ही नही बल्कि भविष्य का कामगार भी तैयार करती है।

इन सभी बातों में महत्वपूर्ण यह है कि खुद औरत के पक्ष में क्या तर्क सही है। क्या उसे घर के अन्दर ही सारी सुविधा और वेतन आदि मुहैय्या कराया जाय या वह भी इस लायक बने कि वह प्रत्यक्ष कामगार श्रेणी में आ जाय? किस तर्क से घरकाम सिर्फ उसे सम्भालना चाहिए ओर इसमें किसका फायदा, किसका नुकसान है। किसी कारण से बाहर की आय जब रूकेगी या उसे नहीं मिलेगी तो घर सिर्फ भत्ते से नहीं चलेगा। उसकी निर्भरता प्रत्यक्ष वाली कमाई पर रहेगी और इस रूप में वह पुरुष पर निर्भर रहेगी। यदि प्रत्यक्ष कमाई का अवसर उसे ही मिलता रहेगा। यह किसी न किसी रूप में जेण्डर भेद को पैदा करता रहेगा।

राजनीतिक पार्टियां किस तरह पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देती हैं इसके कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए उपरोक्त घोषणापत्र में यह वादा भी किया गया है कि लड़कियों की शादी के खर्च के लिए उनके खाते में एक लाख रूपए जमा किए जाएंगे। सवाल है कि क्यों उन्हें शिक्षा या कोई हुनर सीखने के लिए कोई आर्थिक सहयोग देने की बात नहीं की गयी। विवाह में खर्च बेटी वाले ही करते हैं इस सामाजिक रीति को सरकारी नीति में भी मुहर लगा दी गयी। वैसे तो ऐसी सोच का मसला सिर्फ गोवा में सत्तासीन सरकार का नहीं है। कई अन्य सरकारी घोषणाओं में बेटी की शादी में आर्थिक मदद की पेशकश की जाती है। कुछ साल पहले भारतीय जीवन बीमा निगम की तरफ से शुरू की गयी बीमा पालिसी की खूब आलोचना हुई थी। उपरोक्त पालिसी का फोकस बेटी की शादी और बेटे की पढ़ाई पर था।

चूँकि पहली बार गोवा सरकार ने नगद पैसे के रूप में गृहिणी का पद सृजित कर उन्हें प्रत्यक्ष लाभ की बात कही है और यह मांग देखादेखी बनी रहेगी इसलिए इस मुद्दे पर समझ बनाना जरूरी है। दूरगामी रूप से यह औरत को बराबरी का दर्जा हासिल करने में बाधा ही बनेगा। समाज और सरकार को चाहिए कि वह उसके लिए हर क्षेत्र में बराबर का अवसर उपलब्ध कराए तथा पूरे समाज में ऐसे वातावरण निर्मित करे जहां वे बराबर की प्रत्यक्ष कमाने वाली बने। रही बात घर काम की तो वह भी पूरे परिवार को मिलकर ही उसको निपटाना आदर्श होगा।

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