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सादा सा सिनेमा, जिसमें बेवजह डाली गयी अपराध कथा!

Sunday 16 October 2011

♦ अविनाश 

इसे जो डूबा सो पार इट्स लव इन बिहार की कोई आधिकारिक समीक्षा न मानें। यह एक दर्शक की बहुत असावधान किस्‍म की प्रतिक्रिया है। इस प्रतिक्रिया में सिनेमा देखने की तमीज तलाशना भी बेमानी होगी : मॉडरेटर

मतौर पर मुझे फिल्‍म की समीक्षा करनी आती। किसी भी फिल्‍म पर कोई राय कायम करने में भी मुझे वक्‍त लगता है। कुछ बेहद वाहियात फिल्‍में छोड़ दी जाएं, तो मैं लगभग तमाम फिल्‍में देखने के बाद इनर्जेटिक फील करता हूं। कहने का कुल मतलब यह कि मुझे सिनेमाहॉल में वक्‍त बिताना अच्‍छा लगता है। फालतू के इमोशनल सीन में रोना भी अच्‍छा लगता है। वह जगह ऐसी लगती है, जहां आप कुछ आती-जाती रोशनियों के अलावा अपने साथ होते हैं।
जो डूबा सो पार देख कर भी मैं उत्‍साहित ही था। डायलॉग्‍स इतने मजेदार थे कि डीटी सिनेमा के खचाखच भरे ऑडिटोरियम में हमारे आसपास की जगह पूरे समय चहकती रही। रवीश थे मेरे बगल में जिन्‍होंने कहा था कि इंटरवल में निकल लेंगे, लेकिन वे फिल्‍म खत्‍म होने तक बगल में बैठे रहे। बाद बाहर की भीड़ में दिखे ही नहीं। निकल लिये। दिबांग मिले। उन्‍होंने बाहर चहकते हुए मुझे पकड़ लिया और लगभग घूरती हुई नजरों से मुझसे पूछा कि तुम्‍हें मजा आया? मैंने कहा कि हां, मुझे तो बहुत मजा आया।
ऐसा क्‍या था इसमें? मुझे तो समझ में ही नहीं आया।
मैंने दिबांग से कहा कि जो डूबा सो पार को समझने के लिए आपको बिहारी होना पड़ेगा, जो आप हो नहीं सकते। यह एक क्षेत्रीय सिनेमा है, जो हिंदी में बनायी गयी है और इसलिए हिंदी के मसाले में इसमें डाले गये हैं। गैंग भी, गाना भी। पूरी फिल्‍म में केवल विनय पाठक होते पर्दे पर, तो शायद कोई हॉल से बाहर नहीं निकलता। सबके सब हंसते हुए हॉल में ही बेहोश हो जाते। उन्‍होंने फिल्‍म में बिहारीपन की बेजोड़ काया काया ओढ़ी है। आखिरी दृश्‍य में जब वो एसपी की कार डिक्‍की से कार में बैठे हुए एसपी को फोन करके कहते हैं कि ‘डिक्‍की खोलिए न … पियासो लगा है …’ तो ये फिल्‍म का क्‍लाइमेक्‍स सीन था और डायलॉग भी – लेकिन आपको समझ में नहीं आता कि आप हंसें या कि स्‍तब्‍ध हों। और जब कुछ समझ में नहीं आता, तो आप हंसते हैं।
ये एक सादी सी मनोरंजक फिल्‍म है। ज्‍यादा टेंशन नहीं है। मजा आता है। लेकिन कुछ बातें हैं, जो लॉजिकल नहीं है। जैसे जिस इलाके की कहानी है, झंझारपुर, मधुबनी, जितवारपुर, रांटी – ये इलाके कभी आपराधिक गतिविधियों का केंद्र नहीं रहे। विदेशी चेहरे भी इन इलाकों के लिए कोई अनोखी बात नहीं है। मधुबनी पेंटिंग की वजह से विदेशी शोधार्थी यहां आते-जाते रहते हैं।
हालांकि ये इलाके नेपाल से सटे हुए हैं। मधुबनी में जयनगर के बाद जनकपुरधाम है। झंझारपुर से कुछ स्‍टेशन के बाद कुनौली बोर्डर है। लेकिन तस्‍करी के भी ये रूट नहीं हैं। यह सारा लफड़ा चंपारण से सटे बीरपुर की तरफ का है। चंपारण से सटे सारण में भी अपहरण उद्योग फलता फूलता रहा है। चंपारण का भागड़ यादव और सारण का शहाबुद्दीन बीतते सदी में खौफ के किस्‍से रहे हैं। पुराने मध्‍यबिहार में रणवीर सेना और सनलाइट सेना के चलते क्राइम का ग्राफ ज्‍यादा रहा है। ऐसे में ‘जो डूबा सो पार’ की कहानी को मधुबनी पेंटिंग की वजह से उत्तर बिहार के मिथिलांचल में केंद्रित करना तो ठीक था, लेकिन कहानी में अपराध की छौंक लगाना ठीक नहीं था।
फिर भी अगर कहानी के सिचुएशंस को हम भूगोल के यथार्थ में न देखें, तो यह एक गंभीर कहानी है। एक किशोर के एकतरफा प्रेम में पड़ने की कहानी है और उस प्रेम की वजह से कई सारे ऐसे काम को अंजाम देने की कहानी है, जो एक किशोर उम्र का लड़का नहीं कर सकता। पर इस साधारण सी कहानी को भी मजाक में कहने की कोशिश की गयी है। मजा आया, पर बहुत मजा नहीं आया।
एक विनय पाठक ही थे, जिन्‍होंने फिल्‍म की बागडोर थोड़ी थामी। इनके अलावा सादिया सिद्दीकी ने अपने खामोश अभिनय से प्रभावित किया। नायक के रूप में आनंद तिवारी और उनके दोस्‍तों ने भी किरदार के हिसाब से कहानी को जीने की कोशिश की – लेकिन रजत कपूर प्रभाव नहीं छोड़ पाये।
डाइरेक्‍टर थे प्रवीण कुमार। भोले भाले सरल आदमी हैं। मितभाषी हैं, इसलिए गुणी हैं। अगली फिल्‍म में वे जरूर कुछ कमाल करेंगे, क्‍योंकि उनके साथ हैं हिंदी के चार प्रतिभाशाली नाम। रविकांत, संजीव, प्रभात और जोसेफ। इस फिल्‍म के डायलॉग इन्‍हीं चारों लोगों ने लिखे थे। इन सबकी अगली तैयारी मनोहर श्‍याम जोशी को कसप को पर्दे पर उतारने की है।
(अविनाश। मोहल्‍ला लाइव के मॉडरेटर। विमर्श का खुला मंच बहसतलब टीम के सदस्‍य। प्रभात खबर, एनडीटीवी और दैनिक भास्‍कर से जुड़े रहे हैं। राजेंद्र सिंह की संस्‍था तरुण भारत संघ में भी रहे। उनसे avinash@mohallalive.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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