आखिरकार खत्म हुई 109 दिनों की दहशत
युवा पत्रकार धीरेन्द्र अस्थाना लखनऊ अवधनामा से जुड़े है।
लखनऊ। जिसने भी सुना, वह रहमानखेड़ा चौकी की तरफ भागता नजर आ रहा था। हाथ में लाठी लिए हुए 60 वर्षीय रामनाथ भी अपने को रोक नहीं पाए थे और पिंजड़े में कैद टाइगर को देखने पास के गांव से पहुंच गए थे। 109 दिन से दहशत के माहौल में जी रहे रहमानखेड़ा और आसपास के गांव के निवासियों ने मंगलवार सुबह सूर्य की किरण फूटने के साथ ही चैन की सांस ली। खेतों में काम करने वालों के लिए टाइगर का पकड़ा जाना दो मायने रखता था। एक तो असुरक्षा का माहौल था तो इस माहौल में उनका रोजगार भी छिन गया था। केंद्रीय उपोष्ण संस्थान में भी बुधवार को चेहरे पर दहशत नजर नहीं आ रही थी। निदेशक से लेकर कर्मचारी तक ने राहत की सांस ली।
सुबह सात बजे टाइगर के पकड़े जाने की खबर जंगल में आग की तरफ फैल गई। टाइगर को देखने के लिए बच्चे, बूढ़े और महिलाएं भी घरों से निकल पड़े। बढ़ती भीड़ को देखते हुए रहमानखेड़ा के गेट को बंद कर दिया गया, लेकिन गांव वालों ने इसके लिए दूसरा रास्ता निकाल लिया और आठ बजे तक भीड़ का हुजूम नजर आने लगा था। सड़क पर एक पिंजड़े में रखा टाइगर भी होश में आ चुका था। भीड़ देखकर वो गुृर्राने लगा। इसके बाद पिंजड़े को काले कपड़े से ढक दिया गया। गुस्साएं बाघ को शांत करने के लिए उस पर लगातार पानी डाला जाता रहा। उधर, बेकाबू भीड़ को देखते हुए काकोरी थाने की पुलिस को सूचना दी गई, लेकिन उसे बुलाने का मकसद हल नहीं हो सका। पुलिस वाले भी दर्शक की भूमिका निभा रहे थे। वन विभाग के अधिकारियों को डर था कि कहीं टाइगर खुद को घायल न कर ले और ऐसे में उसे सुरक्षित पकड़ने का मकसद खत्म हो जाएगा।
भीड़ को काबू करने के लिए तीनों हथिनी की मदद ली गई। हथिनी ने एक-एक हिस्से से लोगों को खदेड़ना शुरू किया, पर इसका भी कोई असर नहीं हुआ। यही कारण है कि जिस टाइगर की दहशत 109 दिनों से यहां के निवासी ङोल रहे थे, उसकी एक झलक पाने के लिए वे उतावले थे। जब टाइगर वाहन पर लदकर जाने लगा तो लोग वाहन पर चढ़ गए और गेट तक (करीब डेढ़ किलोमीटर) उसकी झलक पाने के लिए दौड़ लगाते रहे। गुस्साए लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराने के लिए पथराव तक किया।
आम को हुआ नुकसान
केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान का रहमान खेड़ा में शोध केंद्र है। यहां वर्तमान में आम, शहतूत, बेल लगे थे। बाघ की दहशत से बागों में कोई जा नहीं रहा था और आम की बौरों और नन्हें फलों को कीड़े नष्ट कर रहे थे। कीड़ों का प्रकोप रोकने के लिए दवा का छिड़काव भी नहीं हो पा रहा था। संस्थान में आम की अंबिका, अरूनिका, दशहरी, लंगड़ा, चौसा, आम्रपाली और मल्लिका जैसी प्रजातियों का उत्पादन और नई नस्ल के लिए शोध कार्य होता है। सात जनवरी से बाघ की इस क्षेत्र में दहशत थी। इस दहशत में शोध कार्य में लगे 46 वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे बैंठे थे तो 300 कर्मचारी भी काम नहीं कर पा रहे थे। 132.5 हेक्टेयर क्षेत्रफल में इस संस्थान में कई बार टाइगर नजर आ चुका था। संस्थान के निदेशक एस रविशंकर कहते हैं कि टाइगर के पकड़े जाने से काफी राहत हुई है। वह कहते हैं कि आम के पेड़ों में दवा का छिड़काव नहीं हो सका और सिर्फ पानी डालकर काम चलाया जाएगा।
शिकार में नहीं था दक्ष
उम्र करीब साढ़े चार वर्ष और लंबाई भी नौ फीट। विशेषज्ञ मानते हैं कि जंगल में यह टाइगर अपनी मां द्वारा किए गए शिकार से ही पेट भरता था और शिकार करने में वह दक्ष नहीं था। उसका व्यवहार भी जंगल के बाघ की तरह क्रूर नहीं था। यही कारण है कि स्थानीय लोगों से कई बार सामना होने के बाद भी टाइगर ने उन पर हमला नहीं किया। टाइगर मिशन में लगे वनाधिकारी डॉ. महेंद्र सिंह बताते हैं कि अमूमन टाइगर किसी नए स्थान पर बहुत दिन नहीं रुकता है लेकिन रहमानखेड़ा को टाइगर ने लंबे समय के लिए चुना।
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